राजेन्द्र सिंह जादौन
पूरी दुनिया ने पत्रकारिता को अपना एक अभिन्न और खास अंग मना है और साथ ही लोकतंत्र में इसको चौथा स्तंभ के रूप में माना गया है। वह 30 मई का ही दिन था, जब देश का पहला हिन्दी अखबार 'उदंत मार्तण्ड' प्रकाशित हुआ। इसी दिन को हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में भी मनाया जाता है।
इतने साल गुजर गए और विश्व पटल पर भारतीय पत्रकारिता का वर्तमान स्तर बताता है कि भारत मे पत्रकारिता किंतने निचले स्तर पर पहुँच गई है ।
इससे आप सोच सकते है की भारतीय पत्रकार की क्या स्थिति विश्व में हैं हमारी मीडिया कितना बिक चुकी हैं यह सर्वे हमारे लिए एक आइना हैं।
देश की मीडिया अभी विश्वसनीयता के सबसे बड़े संकट से गुज़र रही है। अपवादों को छोड़ दें तो हमारी मीडिया की प्रतिबद्धता अब देश के आमजन के प्रति नहीं, राजनीतिक सत्ता और उससे जुड़े लोगों के प्रति है। कुछ मामलों में यह प्रतिबद्धता बेशर्मी की तमाम हदें पार करने लगी है। वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया, उस पर सत्ता और पैसों का दबाव इतना कभी नहीं रहा था जितना आज है। वज़ह साफ़ है। चैनल और अखबार चलाना अब कोई मिशन या आन्दोलन नहीं।
भारत में परंपरागत मीडिया में कोई पत्रकार नहीं होता, बल्कि् वह एक निजी कंपनी के मुलाजिम से ज्यादा कुछ नहीं होता है। यहां उसका अपनी कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है।वह केवल मीडिया मंडी के व्यापार और हितों के साथ-साथ , यदि पैसा कमाने के लिए पत्रकार बना है तो पीत पत्रकारिता के द्वारा भौतिक सुख-सुविधाओं के साथ अपने लिए राजनीति और सत्ता के दरवाजे भी खटखटाने का मौका हासिल कर सकता है। परागत मीडिया में उसे तकनीक और जुगाड का अच्छा अनुभव प्राप्त हो जाता है। जो लोग उस खांचे में फिट नहीं हो पाते, वो वहां से निकाल दिए जाते हैं या स्वयं ही उद्विग्न होकर भाग खडे होते हैं।
चूंकि उनका संपर्क परंपरागत मीडिया में रहा होता है ऐसी स्थिति में पहले वो स्वतंत्र रुप से अपनी रिपोर्ताज , स्टोरी एक एंजेसी के रुप में परंपरागत मीडिया को मुहैया कराते थे। अब सोशल मीडिया के कारण स्वतंत्र पत्रकारों के लिए अनेकों विकल्प खुल गए हैं। यदि किसी के अन्दर प्रतिभा, परिश्रम और सूचनाओं को ईमानदारी पूर्वक निष्पक्षता और तथ्य के साथ प्रस्तुत करने की अपनी कोई शैली हो तो उसे लोग हांथो-हांथ लेते हैं, लेकिन शुरु में बहुत कठिन संघर्ष भी करना पड़ता है। यहां अपनी पहचान बनाने के लिए खुद को साबित करने की चुनौती हमेशा रहती है।
भारतीय पत्रकारिता ने अपनी विश्वसनीयता ही सिर्फ नहीं खोई, अब तो वो आम लोगों को भीड़ बनाने की कोशिश में लगी हुई है। मीडिया युद्ध के लिए उत्पाद मचाती है, मीडिया दंगे भड़काने के लिए झूठ बोलती है।
मीडिया से रिपोर्टिंग बंद हो चुका अब सिर्फ भावनात्मक बात होती है या नेताओं के बयान को बैठ कर छील छील कर मतलब खोजते रहती है, आप टीवी देखे तो इसपर जरूर गौर करे कि मीडिया कितनी बार किसान कि समस्या दिखा रही है, कितनी बार दिखा रही है कि स्कूल में शिक्षक है या नहीं, कितनी बार दिखा रही है कि सरकारी अस्पताल में डॉक्टर है या नहीं।
आप पूछे मीडिया से कि बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ में क्या काम हुआ , कितने स्कूल बने, कितने शिक्षक की भर्ती हुई या सिर्फ प्रचार से ही बेटी पढ़ लेगी, आप चेक करोगे तो आपको पता चलेगा की आधा से ज्यादा रुपया सिर्फ पोस्टर और बैनर लगने में खर्च हो गया।
निष्पक्ष पत्रकारिता की बात गुजरे जमाने की बात हो गयी है जनाब आप तो पार्टी गत भी नहीं व्यक्तिगत रुप की पत्रकारिता का चलन हो गया है ।जो लोकतंत्र के लिये खतरनाक ।
ये मीडिया आपको हिन्दू मुस्लिम, हिंदुस्तान पाकिस्तान डिबेट में बैठाकर सिर्फ उलझा रही है, आप भी अपने असली मुद्दे से भटक गए है और बैठ कर हिन्दू मुस्लिम का डिबेट को मनोरंजन की तरह देख रहे है।
मुझे पत्रकारिता की अच्छि जानकारी तो नही है, पर हाँ मैं बहुत दिनों से इस पर नज़र रखा हुआ हूं। देखता हूं रोज कौन चैनल, कौन न्यूजपेपर क्या दिखा रहा है, क्या प्रिंट कर रहा है। मैं अपना अनुभव आपके साथ बांट रहा हूं। क्योंकि तुम में भी कही ना कहीं मैं हूँ
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