(आलेख : बादल सरोज)
कुनबे की हड़बड़ी कुछ ज्यादा ही बढ़ी दिख रही है ; उन्मादी ध्रुवीकरण को तेज से तेजतर और उसके तरीकों को अशिष्ट से अभद्रतम तक पहुंचाया जा रहा है। यूपी की फिसलन के बाद बिगड़ा सरोदा संभाले नहीं संभल रहा है ; 'कटेंगे तो बंटेंगे' का फरसा भांजने के बाद भी पूरी आश्वस्ति नहीं हुई – झारखण्ड और महाराष्ट्र के चुनावों में एक हाथ से नोटों को बौछार करते और दूसरे हाथ से विभाजन की धधक धधकाते हुए भी सब्र नहीं हुआ, तो अब अपने कथित साधुओं को इस काम में लगा दिया है ।
अगले साल होने वाले कुंभ को इसका एक और जरिया बनाने का काम अभी से शुरू कर दिया गया है। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने भी अपना लंगोट घुमाते हुए मांग उछाली है कि 2025 में इलाहाबाद - प्रयागराज - में होने वाले कुंभ में मुस्लिमों का आना-जाना प्रतिबंधित किया जाए। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष रवीन्द्र पुरी ने बाकायदा पत्रकार वार्ता करके यह मांग की है। उनका दावा है कि चूंकि यह हिन्दुओं का त्यौहार है, इसलिए यदि मुसलमानों पर रोक नहीं लगाई गयी, तो इस कुंभ की पवित्रता भंग हो जायेगी। उनके इस दावे के निहितार्थ दूर तक जाने वाले हैं, सिर्फ यहीं तक नहीं रुकने वाले, क्योंकि इसके लिए “पवित्रता भंग हो जाने” का जो कारण उन्होंने बताया है, वह केवल मुसलमानों तक नहीं रुकता, बल्कि सही में तो उसका कोई बुनियादी संबंध मुसलमानों के साथ है ही नहीं। अखाड़ा परिषद और उसका रिमोट धारी जिसे शास्त्रोक्त हिन्दू और सनातन धर्म मानता है, उसमे पवित्रता और अपवित्रता की मान्यता इस्लाम और ईसाइयत के आने से काफी पहले की है, और वह उसी हिन्दू समाज के विराट बहुमत के लिए है, जिन्हें इस कुनबे की प्रिय मार्गदर्शिका किताब मनुस्मृति में शूद्रातिशूद्र स्त्रियों और शूद्रों के रूप में चिन्हांकित और परिभाषित किया गया है।
इसलिए आज भले अखाड़ा परिषद ने मुसलमानों को निशाना बनाया है, मगर कल – और यह कल कोई अधिक दूर का कल नहीं है – इस ओम पवित्रम पवित्राय के दायरे में ये सब आयेंगे, यह तय है। असल में शूद्र कौन हैं? सिर्फ वे ही नहीं हैं, जिन्हें अनुसूचित जाति के नाम पर सूचीबद्ध किया गया है। इनमें वे सभी आते हैं, जो द्विज वर्ण में नहीं आते ; ओबीसी का झुनझुना सिर्फ बजाने भर के लिए है, दिखाने भर का है। वर्णाश्रम की श्रेणियों में उनकी शुमार कहाँ है, यह इन कथित पिछड़ी जातियों को पता है – जिन्हें कोई भरम है वह भी जल्द ही दूर हो जाने वाला है।
मगर अब यह बात शूद्रों और ओबीसियों से भी आगे निकल रही है। मोदीप्रिय संघनिष्ठ कथित जगद्गुरु रामभद्राचार्य की एक और नई प्रस्थापना आ गयी है। इस बार उन्होंने उन्हें छुआ है, जो इस मुगालते में थे कि ब्राहणवाद का आना मतलब उनका अपना राज बहाल हो जाना है, जिन्हें इन दिनों ‘आसमां पे है खुदा और जमीं पे वो’ का मुगालता था!! उनके सजातीय विश्वगुरु ने उन्हें सिर्फ छुआ भर नहीं है, ढंग से लतियाया है सो भी ऐसी जगह कि उन्हें ‘ऐसी मरनी जो मारे बहुरि ना मरना होए, कबीरा मरता मरता जग मुआ मर भी ना जाने कोए’ कहने वाले कबीर याद आ गए होंगे।
उन्होंने विशेष ‘शोध’ करके बामनों के बीच नीच और अधम ब्राह्मणों की न सिर्फ पहचान ही की है, बल्कि उन्हें बाकायदा नामजद भी किया है। बकौल उनके चौबे, “उपाध्याय, त्रिगुणाइत (तिवारी, त्रिपाठी, त्रिवेदी, तिवाड़ी), दीक्षित और पाठक नीच और अधम कोटि के ब्राह्मण हैं।“ पढ़ने भर में ही यह बात न सिर्फ सड़क छाप और छिछोरी है, कर्कश और बेस्वाद है, बल्कि अभद्रता की हर संभव सीमा को लांघने वाली है। होने को तो यह देश के विधि विधान आईपीसी और सीआरपीसी दोनों के हिसाब से आपराधिक भी है, दण्डनीय भी है। मगर रामभद्राचार्य के हिसाब से तो कुछ भी नहीं है – वे इस तरह के, बल्कि इससे भी अधिक आपत्तिजनक और घृणित ‘धर्मसम्मत’ प्रवचन देने और उनके जरिये सुर्ख़ियों में रहने के आदी हैं।
अभी कुछ समय पहले उन्होंने फरमाया था कि जो राम को नहीं भजता वह चमार है ; ‘राम को भजने वाला संत, चाम को भजने वाला चमार’। ये कथित श्रीमान जगद्गुरु अपढ़ नहीं हैं, संस्कृत की कई उपाधियाँ उनके पास हैं ; उनके शिष्यों का दावा है कि उन्होंने सैकड़ों ग्रन्थ रचे हैं । अब यदि वे काफी पढ़े लिखे हैं, तो जाहिर है कि उन्हें यह भी पता होगा कि सर्वोच्च न्यायालय ने 'चमार' शब्द को जातिवादी गाली बताया है, कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत, किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति को 'चमार' कहकर संबोधित करना अपराध है। निस्सन्देह उन्हें यह पता है, बल्कि वे कह ही इसलिए रहे हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि वे क्या कह रहे हैं ।
इस तरह की शाब्दिक हिंसा में उन्हें आनंद मिलता है – वे इससे भी आगे जाकर अकथ को भी इस तरह इठला-इतरा कर बोलते हैं, जैसे वेद की ऋचाऐं पढ़ रहे हों। पिछली वर्ष आगरा में उन्होंने नारा दिया था कि “मरें मुलायम कांशीराम, भज लो भैया जय श्रीराम”। जब उनसे पूछा गया कि ऐसा अशोभनीय बयान उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही सहित विरोध कार्यवाहियों का कारण भी बन सकता है तो उन्होंने अहंकार के साथ जवाब दिया था कि "उनके लोग भी कार्यवाही करना और उसका मुकाबला करना जानते हैं ।"
बाबा महाराज अपने मन से, ऐन्वेई, कुछ भी अललटप्पू नहीं हांक रहे ; वे एक एजेंडा आगे बढ़ा रहे हैं। कथित हिन्दू गौरव की बहाली और हिंदुत्व की शासंन प्रणाली की कायमी का एजेंडा ही उनका धर्मं सार है। हाल के वर्षों में चूंकि हिंदुत्व की असलियत ज्यादातर लोगों ने समझ ली है, इसलिए उसका इस्तेमाल बंद सा करके सनातन का राग अलापा जा रहा है। बहरहाल बोतल पर चिपके ब्रांड का नाम कुछ भी हो, उसमे भरा गरल एक ही है और उसका नाम है मनुस्मृति!! यानि कि एक ऐसे समाज की स्थापना करना, जिसमे शूद्रों और महिलाओं के पास जानवरों के बराबर अधिकार भी न हो, समाज में लोकतंत्र तो बहुत दूर की बात शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य यहाँ तक कि ज़िंदा रहने का अधिकार भी न हो ; सारे अधिकार सिर्फ और केवल उनके पास हों, जो इस किताब के हिसाब से सीधे ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए हैं।
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