मच्छर पुराण
यह तब की बात है, जब चुनाव हो रहे थे।
उस मौसम में मच्छर गरीब से गरीब को भी नहीं काटते थे, मगर मच्छर सुरक्षा के तमाम घेरों को तोड़कर रात भर फलांने जी को अवश्य काटते थे। आश्चर्य कि उनके नौकर-चाकरों की लंबी-चौड़ी फौज में से किसी एक को भी नहीं काटते थे। फलांने जी से उन्हें इतनी जबरदस्त मोहब्बत थी कि सीधे उनके पास पहुंचते और काटते।उन्होंने सारे संभव उपाय करवाए, मगर मच्छरों को उनका खून इतना ज्यादा पसंद आया था कि तमाम तरह के खतरे उठाकर भी मच्छरों ने उन्हें काटना नहीं छोड़ा। काटते ही चले गए! थकने का नाम ही नहीं लिया। मच्छरों ने काटने का परिश्रम दिन में सोलह घंटे नहीं, बल्कि चौबीस घंटे किया। परिश्रम करने का ऐतिहासिक रिकार्ड पेश किया। सोलह घंटे वाले को शर्मिन्दा करना भी लगता है उनका उद्देश्य था। मच्छरों ने यह सिद्ध किया कि जब सचमुच कुछ कर गुजरने की धुन होती है, तो घंटे नहीं गिने जाते। सोलह घंटे में थका नहीं जाता। रात-दिन नहीं सोचा जाता!
फिर भी मैं कहूंगा, बुरा किया मच्छरों ने। उनकी यह लगन, यह धुन प्रशंसनीय है, मगर देश के लिए 16 घंटे काम करने वाले के साथ ऐसा करना विशुद्ध बदतमीजी ही कहा जाएगा। मगर उन्होंने की और जमकर की। गाय, भैंस, बकरी, भेड़, बैल आदि हैं काटने के लिए सहज उपलब्ध। हिंदुस्तान की सारी जनता इसके लिए सुलभ है, मगर मच्छरों ने फलांने जी को ही अपने भोजन के लिए पाया सबसे उपयुक्त। उन्हें काटते और अपनी पूरी फौज के साथ जी भरकर काटते। सुबह-दोपहर-शाम काटते। रात भर काटते। हर मौसम में हर क्षण काटते। बंदूक, पिस्तौल, पुलिस, फौज किसी से नहीं डरते। पद से नहीं डरते।उस शख्स द्वारा राष्ट्र के प्रति की गई 'सेवाओं ' से नहीं डरते। एक राय यह है कि राष्ट्र के प्रति की गई उसकी 'सेवाओं' से तंग आकर ही मच्छर ऐसी हरकत करते थे। विरोधियों का काम आसान करते थे। इन्हें इतनी समझ नहीं थी कि जिसका डंका दुनिया भर में बज रहा है, उसे तो छोड़ देते! उसकी नहीं, उसके दुनिया भर में बजते डंके की तो परवाह करते? उसके पद की, उसकी प्रतिष्ठा की, उसकी लोकप्रियता की, उसके भगवा की, देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करने की उसकी 'पवित्र भावना' की फ़िक्र करते! मगर मच्छर हैं, नागरिक नहीं। नहीं की, तो नहीं की!
और यह ठीक नहीं किया मच्छरों ने। फलांने जी ने नागरिकों के साथ जो भी किया हो, मगर मच्छरों के साथ तो कोई अन्याय कभी नहीं किया! न नोटबंदी उनके खिलाफ थी, न लाक डाउन उनके विरुद्ध था। उनके किसी काम में कभी कोई बाधा नहीं डाली। उन पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया, हिंदू-मुसलमान नहीं किया। उनकी आजादी का सम्मान किया। फिर भी ऐसा अन्याय, ऐसा जुल्म, ऐसी दुष्टता मच्छरों ने की!
मच्छरों ने यह अपने भविष्य के लिए ठीक नहीं किया।मगर मच्छर तो जी, ठहरे ठेठ मच्छर। इन्होंने कब भविष्य की, सही-गलत की परवाह की? उनके मां -बाप ने उन्हें एक ही बात सिखाई कि जिसके कि शरीर में खून हो, काटो। अधिक खून है, खूब तर माल से बना खून है, तो अधिक और अधिक काटो और जियो और जीते चले जाओ। और अगर इस दौरान मार दिए जाओ, तो मरने की परवाह मत करो। इसका घमंड मत पालो कि तुम शहीद हो गए। तुम न मंत्री हो, न मुख्यमंत्री, न प्रधानमंत्री! तुम्हारी जान कीमती नहीं। तुम्हारे मरने से किसी को कोई अंतर नहीं पड़ेगा, इसलिए जितना जी सकते हो, जिओ। जितना बच सकते हो, बचो, मगर अपने कर्तव्य से च्युत मत होओ।
और फिर यह भी तो सोचो, हम मच्छरों को कौन सा स्वर्ग जाना है, जो मनुष्य को काटने के दुष्कर्म के कारण हम नरक भेज दिए जाएंगे! हम पर न मनुष्यता को बचाने का भार है, न देश की सुरक्षा का, न देश को 2047 तक विकसित करने का! न रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध रुकवाने का! खून पियो और जिओ।
मच्छरों ने दरअसल फलांने जी की मजबूरी का खूब फायदा उठाया। शायद मच्छर भी जानते थे कि अभी चुनाव का समय चल रहा है, हमारे काटने को माइंड करके भी, फलांने जी अधिक माइंड नहीं कर पाएंगे। वे कहेंगे कि ठीक है, काटो! अरे मच्छरों ने ही तो काटा है।काटना उनका धर्म है। वे नहीं काटेंगे, तो जिन्दा कैसे रहेंगे? और जिंदा रहने का अधिकार तो मच्छरों को भी उतना ही है, जितना इस देश के बहुसंख्यकों को! यह फंडामेंटल राइट है इनका। इनके जीवन-मरण से जुड़ा मसला है यह। उस समय तो फलांने जी यह भी कह सकते थे कि आओ मच्छरो, आओ। आओ और काटो। जितना काट सकते हो, काटो। एक बार चुनाव हो जाने दो, जीत जाने दो, फिर देखना, तुम्हारी क्या हालत करता हूं। तब तो फलांने जी को विश्वास था कि मच्छर भी हिंदू हैं और उन्हें ही वोट देंगे। लेकिन मच्छर तो मच्छर, हिंदू भी चुनाव के बाद उतने वफादार नहीं निकले, जितनी उनसे उम्मीद की जा रही थी!
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