हाँ ये वही आदमी है जिसे आप पत्रकार कहते है ? आदमी जो लिखता है, महीने-दर-महीने, हफ्ते-दर-हफ्ते, दिन-रात लोगो को समझता है गों के विचारों को शक्लो-सूरत देता है, दरअसल वही आदमी है जो किसी अन्य व्यक्ति की बनिस्पत, लोगों के व्यक्तित्व या सिफत को तय करता है और साथ-साथ यह भी, कि वे किस तरह के निजाम के काबिल है. ये वही आदमी है जिसे आप पत्रकार कहते है। ये वही आदमी है जो आपके विचारो से उत्पन एक मूर्त को रूपांकित करता अपने शब्दों से साथ ही उसमे जान डालकर उसे खूब सूरत अमलीजामा पहनाकर बाजार में उतारता है। और ये शब्दों से गाढ़ी गयी मूर्त आपके पास रोज सुबह दस्तक देती है और आप इसे चाय की चुस्की और नास्ते की टेबल पर बैठकर निहारते है और अपने विचारी से उसे पुकित करते है। एक आदमी ये भी है जो पत्रकार महीने-दर-महीने, हफ्ते-दर-हफ्ते, दिन-रात साजो-सामान जुटाकर नेताओं को बिना किसी किस्म की जवाबदेही के अपनी कुर्सी पर बनाए रखने के लिए लेख पर लेख लिखते हैं, या फलां नेता या फलां सरकार के गुणगान करने में रात-दिन एक कर देते हैं, या, उनकी काली करतूतों के खिलाफ सबूतों को नजरंदाज करते हैं, ऐसे पत्रकार दरअसल भ्रष्टाचारी, जन-विरोधी और अनैतिक सरकारों के हिमायतियों की गिनती में आते हैं। समूचे इतिहास में राजनेताओं और सत्ता में बैठे तमाम महानुभाव इस आदमी को जिसे आप पत्रकारों कहते है इको पालतू बनाने को जरूरी मानते आए हैं क्योंकि उनके पास वह ताकत है जिसकी शिनाख्त रूजवेल्ट ने अपने कथन में की थी. कुछ देशों में, अन्य देशों के मुकाबले राजनेता — मीडिया और पत्रकारों को वश में रखने में ज्यादा कामयाब रहे हैं. लेकिन सत्ता पर काबिज एक शक्तिशाली व्यक्ति किसी पत्रकार को किस हद तक वश में कर सकता है, यह बात बहुत हद तक उस पत्रकार विशेष पर भी निर्भर करती है। इतना ही नहीं निसंदेह, ताकतवरों को सच का आइना दिखाने से रोकने के लिए, लोग अपने आजमाए नुस्खों की मदद से आपको इस कवच से ही लैस नहीं होने देना चाहेंगे. एक संपादक किसी न्यूज स्टोरी के विचार को टेबल पर रखते ही उसका ‘कत्ल’ कर सकता है. एक अखबार का मालिक अपने न्यूजरूम में ‘वर्जित क्षेत्रों’ की सूची तय कर सकता है. यह सब बाहरी कारक हैं. लेकिन, पिछले कुछ समय से मैं बतौर संपादक होनहार पत्रकारों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए इन नकारात्मक ताकतों को पहले से ज्यादा चालाकी और धूर्तता से काम करते देख रहा हूं। शब्दों के इस कलाकार रूपी आदमी को आदमी से गुलाम बनते भी ? हमारे देश में न्यूजरूम पर काबिज राजनीतिक और बौद्धिक रूप से रसूखदार लोगों या हमारे वरिष्ठ साथियों द्वारा नौजवान पत्रकार के विकास पर रोड़े अकटकाने और निष्क्रिय बनाने की कवायद अविराम चलती रहती है. इस काम को कदाचित बेहद मामूली उपलब्धियों पर तारीफ़ों के पुल बांधकर अंजाम दिया जाता है — जैसे, जब-तब उम्दा संपादक, उम्दा रिपोर्टर और उम्दा पत्रकार के तमग़े चस्पाँ करके। इतना ही नहीं कई बार तो खोजी पत्रकारिता के अत्यंत महत्वपूर्ण खुलासे ही इस नाकाबलियत के चलते ठंडे बक्से में डाल दिए जाते हैं और फिर ये आदमी भी इसी तरह कुछ न कुछ गढ़ता रहता है ?
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