भारत सरकार की बायोमीट्रिक पहचान योजना तमाम वजहों से आलोचनाओं का शिकार रही है लेकिन कुछ नई रिपोर्टों से पता चलता है कि यह योजना अब देश भर में भुखमरी बढ़ाने और भूख से होने वाली मौतों की वजह बन रही है. साल 2017 में भारत के पूर्वी राज्य झारखंड की एक दलित महिला कोइली देवी की 11 वर्षीय बेटी की मौत हो गई. कोइली देवी का कहना था कि मौत भूख की वजह से हुई है जबकि स्थानीय अधिकारियों का कहना था कि लड़की की मौत मलेरिया से हुई. कोइली देवी का दावा था कि उनकी बेटी को खाना इसलिए नहीं मिल पाया क्योंकि उन्होंने अपने राशन कार्ड को ऑनलाइन तरीके से आधार से लिंक नहीं कराया था. आधार केंद्र सरकार की एक बायोमीट्रिक पहचान योजना है. कोइली देवी का राशन कार्ड भी उन तीन करोड़ सरकारी दस्तावेजों में से एक है जिन्हें देश भर में साल 2013 से 2016 के बीच आधार से लिंक न होने के कारण निरस्त कर दिया गया है. सरकार ने इन दस्तावेजों को आधार से लिंक कराने के लिए एक समय सीमा तय की थी और उसके भीतर ऐसा न कराने वालों के कार्ड यह मानकर निरस्त कर दिए गए कि ये फर्जी थे. कोइली देवी कहती हैं कि उनकी तरह कई और लोगों के भी राशन कार्ड आधार से लिंक न होने के कारण निरस्त कर दिए गए जिसकी वजह से सरकारी राशन की दुकानों पर उन्हें राशन मिलना बंद हो गया. पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने बड़े पैमाने पर निरस्त किए गए राशन कार्डों के मामले को एक "गंभीर मामला" बताते हुए केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया और इस संबंध में लग रहे आरोपों पर स्पष्टीकरण देने को कहा. कोइली देवी के वकील कोलिन गोंजाल्विस ने डीडब्ल्यू को बताया, "कोइली देवी का मामला सिर्फ उनका अकेला नहीं है, बल्कि देश भर में ऐसे लाखों मामले हैं. कम से कम 10-15 राज्यों में इस वजह से कई लोगों की मौत भूख की वजह से हुई है." गोंजाल्विस कहते हैं कि राशन कार्डों को इस आधार पर निरस्त करना गैरकानूनी था. गोंजाल्विस मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हैं और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क नाम की संस्था से जुड़े हैं जिसकी मदद से कोइली देवी की याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई. गोंजाल्विस कहते हैं, "यदि आप किसी व्यक्ति के सरकारी अधिकार को निरस्त करते हैं तो कानून के मुताबिक, पहले आपको इसके लिए नोटिस देना होगा. अधिकारियों को यह बताना होगा कि उन्हें इस बात का यकीन है कि उनका कार्ड फर्जी है और वे इसकी जांच करने उनके घर आएंगे. पर ऐसा कुछ नहीं किया गया." भोजन का अधिकार साल 2013 में भारत में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून पारित किया गया जिसके तहत भोजन के अधिकार को संवैधानिक गारंटी प्रदान की गई. इसी कानून के तहत स्कूलों में मिड डे मील और जन वितरण प्रणाली यानी पीडीएस व्यवस्था शुरू की गई जिसके तहत गरीब लोगों को खाद्य और अन्य जरूरी उपभोग की सामग्री सस्ते दर पर उपलब्ध कराई जाती है. खाद्य सुरक्षा के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इन राशन कार्डों की बायोमिट्रिक पहचान योजना से लिंक कराने की बाध्यता देश में खाद्य असुरक्षा को बढ़ावा दे रही है. डीडब्ल्यू से बातचीत में अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता ज्यां द्रेज कहते हैं, "सरकार यह साबित करना चाहती है कि आधार फर्जी राशन कार्डों को निरस्त करने में सक्षम है. ये कार्ड तमाम ऐसे लोगों के हैं जिन्हें वास्तव में इनकी बहुत जरूरत है." जानकारों का कहना है कि ज्यादातर निरस्त किए गए कार्ड उन लोगों के हैं जो बहुत ही गरीब हैं और समाज की "निम्न जातियों" और आदिवासी समुदाय से आते हैं. साथ ही ये लोग ग्रामीण और दूर-दराज इलाकों में रहते हैं. ज्यां द्रेज कहते हैं कि राशन कार्ड को आधार से लिंक न करा पाने के तमाम कारण हैं लेकिन प्रमुख समस्या यह है कि बायोमीट्रिक तकनीक ही भरोसेमंद नहीं है, "कार्डों को आधार से लिंक कराना एक समस्या है लेकिन समस्याएं कई और भी हैं. मसलन, बायोमीट्रिक सिस्टम की विश्वसनीयता भी एक समस्या है. कई बार यह सिस्टम काम ही नहीं करता है. यदि कोई व्यक्ति बायोमीट्रिक के जरिये अपनी पहचान स्पष्ट नहीं कर पाता है, फिर भी पीडीएस का डीलर उसे राशन देने के लिए बाध्य है और राशन देने के बाद वह रजिस्टर पर उसका विवरण दर्ज कर सकता है. लेकिन दिक्कत यह है कि डीलर आधार के रिकॉर्ड के हिसाब से ज्यादा से ज्यादा राशन प्राप्त कर लेते हैं लेकिन उसे बांटते नहीं हैं." वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ ने ऐसे कई साक्ष्य इकट्ठा किए हैं जब बायोमीट्रिक सिस्टम फेल हुआ है. कई बार तो फिंगर प्रिंट का ही मिलान नहीं हो पाता और इस वजह से लोगों को राशन देने से मना कर दिया जाता है. सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इसके लिए स्मार्ट कार्ड जैसी आसान तकनीक का भी इस्तेमाल किया जा सकता है, जो कि ग्रामीण इलाकों में भी ठीक से काम करेगी क्योंकि उसके लिए बायोमीट्रिक की तरह इंटरनेट की निर्भरता नहीं रहेगी. अधिकारी नहीं मानते भूख से मौत की बात हालांकि अधिकारी इस बात से हमेशा इनकार कर देते हैं कि देश में किसी की भी मौत भूख की वजह से हो रही है. ज्यां द्रेज कहते हैं कि यह स्थिति बहुत ही चिंताजनक है, "राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण और दूसरे अन्य स्रोतों से हमें पता चलता है कि यह भारत में कोई असामान्य स्थिति नहीं है कि बहुत से लोगों को हर दिन दो वक्त का भोजन नहीं मिल पाता है. भूख से होने वाली मौतों के प्रमाण हैं और तमाम मामलों की बहुत ही गंभीरता से पड़ताल भी की गई है. भूख एक राष्ट्रीय मुद्दा है लेकिन दुर्भाग्य से केंद्र सरकार इसे स्वीकार नहीं कर रही है." केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला ने पिछले हफ्ते संसद में कहा कि गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से भूख के मामलों में तैयार की गईं रिपोर्ट्स खारिज की जानी चाहिए क्योंकि हमारे यहां तो 'गली के कुत्ते भी खाना पा जाते हैं'. रुपाला संसद में उस रिपोर्ट पर पूछे गए सवाल का जवाब दे रहे थे जिसमें साल 2020 में ग्लोबल हंगर इंडेक्स के मामले में भारत को 107 देशों की सूची में 94वां स्थान दिया गया था. पत्रकार साईनाथ कहते हैं कि भूख की समस्या को सरकारी हस्तक्षेप के बिना सुलझाया नहीं जा सकता. उनके मुताबिक, "यह राज्यों की जिम्मेदारी और उनका कर्तव्य है कि इस मुद्दे को सुलझाएं. साल 1980 में तमिलनाडु में मिड डे मील योजना लागू की गई. तमाम लोगों ने इसकी आलोचना की लेकिन योजना बहुत ही सफल रही और यूनिसेफ तक ने इसे एक मॉडल की तरह अपनाया." ज्यां द्रेज मानते हैं कि योजनाओं को सिर्फ प्रतीकात्मक तरीके से लागू करने के अलावा भी बहुत कुछ करने की जरूरत है, "केंद्र सरकार ने कम बजट से प्रतीकात्मक योजनाएं शुरू की हैं लेकिन उनका कोई मतलब नहीं है. हम इतने गंभीर मुद्दों को इतने हल्के तरीके से नहीं सुलझा सकते हैं."
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