संघ के पाठयक्रम के रचयिताओं की दृष्टि में मझोले दर्जे का व्यावहारिक बुद्धिजीवी बड़े सिद्धांत प्रणेता से कहीं ज्यादा समाजोन्मुखी और कारगर होता है.
गुजरात में दीनानाथ बतरा के द्वारा सिखाए गए बौद्धिक हिचकोलों को अंतरिक्ष की उड़ान के अभियान नवाचार की तरह शिक्षा जगत में घातक लेकिन आश्वस्त प्रयोग किए जा रहे हैं. पूना फिल्म इंस्टीट्यूट और इतिहास तथा संस्कृति आदि के राष्ट्रीय संस्थानों में चिन्तनीय नियुक्तियां कर दी गई हैं. वे आज्ञाकारी होंगे लेकिन अपनी विधा के दुर्लभ प्रतिमान नहीं हैं. आदेश पर काम करेंगे. संस्थाओं की स्वायत्तता आसानी से गिरवी भी रख देंगे. चूं चपड़ तक नहीं करेंगे. कॉरपोरेटियों की कबरबिज्जू सहभागिता से इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के प्रचार ने नकली झंझावात पैदा तो किया है.संघ विचारधारा को यह मालूम है. जनमत कांच जैसा पारदर्शी, पतला, कमजोर और अलिखी स्लेट की तरह होता है. उसे अपने अनुकूल बनाने के लिए झूठ, अफवाह, किवदंतियों, रूढ़ियों, परनिंदा के साथ साथ हिंसा का भी सहारा लेना पड़े तो लक्ष्य को पाने वह भी गलत नहीं है.मनुष्य की विकृत मानसिकताओं को सामूहिकता में बदलने से वह हुक्म तामील करने वाली भीड़ बन जाती है. भीड़ भेड़चाल में ही तब्दील होती है. अंधविश्वास, नारे, तालियां, गालियां, हवाई यात्रा, दंगे, विदेशी करार, टीवी सीरियलों के सपने, लच्छेदार भाषण, थूकती हुई दृष्टि आदि अमोघ हथियार हैं. उनका इस्तेमाल किया जा रहा है क्योंकि वे नतीजा लाते हैं.
पंचायती दुनिया में महात्मा गांधी और शहरी आर्थिक राजनीतिक इलाके में नेहरू और इंदिरा के रोल मॉडल उपलब्ध होने के बाद भी सत्ता के कांग्रेसी विकल्प के गैरविचारवान आंदोलन के जेहन में संघ परिवार की आलोचना ही केवल कारगर उपाय दिखाई देती है. जबकि ऐसा नहीं हो सकता. वामपंथी प्रतिबद्धता के बावजूद मसलन बंगाल के सिंगूर में टाटा के कारखाने को लाने की जिद में कम्युनिस्ट शासन ने अपना बेड़ा गर्क कर लिया. ममता बनर्जी क्रांतिकारी विचारक नेता नहीं रहीं. विचारधारा के स्तर पर उन्होंने उन्हीं भावनात्मक हथियारों का इस्तेमाल किया. ये हथियार वक्त बावक्त महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी और संघ परिवार के लोग इस्तेमाल करते ही रहे हैं. पूरे मार्क्सवाद का दर्शन छूछा रह गया. ममता ने मां, माटी, मानुष का ग्रामीण गंध का ककहरा पढ़ा. वोटों से अपनी झोली भर ली. यहीं सबसे बड़ी चूक सत्ताधारी संघ परिवार से भी हो रही है.
वह रणनीतिक आधार पर देश की तरक्की की आशा करता है. भरे हुए पेट के लोगों और सवर्ण हिन्दुओं को तरजीह देने में कोताही भी नहीं करता. गांधी ने वहां भी सांख्यिकी में बाजी मारी थी. वे गरीबों के साथ थे. उन्हें दरिद्रनारायण कहते थे. यह शब्द गांधी ने विवेकानन्द से चुराया था. राजनीति में रहने के कारण उसका इतनी बार उच्चारण किया कि उस पर गांधी का पेटेंट हो गया.
अच्छे दिन आएंगे का नारा किताबी राजनीतिज्ञ मनमोहन सिंह ने दिया. मैदानी राजनीति के सूरमा नरेन्द्र मोदी ने उसे बार बार दोहराकर अपना नारा बनाया और बाजी जीत ली.
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