राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार पहले कांग्रेस के सदस्य हुए. उन्हें कांग्रेस की सर्वसमावेशी समझ से इत्तफाक नहीं रहा होगा. इसलिए उन्होंने नया संगठन बनाया. प्रचारित हुआ संघ सांस्कृतिक संगठन है. संस्थापक और नेता जानते रहे होंगे राजनीति वह जबड़ा है जिससे संस्कृति को भी चबाया जा सकता है. धीरे-धीरे चलते-गिरते अस्सी बरस बाद संघ की प्रजनन समझ को अपने सपने और अनुमान का पुरस्कार मिल ही गया. हिन्दुस्तान के प्रगतिशीलों को एक गलतफहमी लगातार रही है. यह कि संघ की विचारधारा के छाते के नीचे बड़े बौद्धिक नहीं पनप सकते. वहां ठूंठ बौद्धिकता की काई है. पता नहीं यह कितना सही है. विचारधारा आकाशीय तत्व है. धरती पर उसकी फसल लहलहाने के लिए जनसमर्थन का पसीना, खून और आंसू चाहिएभारतीय कम्युनिस्टों का प्रतिनिधिमंडल आजादी की जद्दोजहद के बीच कॉमरेड लेनिन से मिलने रूस गया था. उन्होंने गांधी की पूंजीपरस्त समर्थक प्रतिगामी विचारधारा की आलोचना भी की.
लेनिन ने सीधा सवाल पूछा. भारत के किसान कहां हैं. जवाब था गांधी के साथ. लेनिन ने दो टूक कहा जनक्रांति का वह हरावलदस्ता सफल ही नहीं हो सकता जिसमें किसान नहीं हों. जाओ आजादी की जद्दोजहद में कूद पड़ो. भले ही उससे गांधी को निकाल दो. आत्ममुग्ध भारतीय कम्युनिस्टों ने वैसा नहीं किया. नतीजा सामने है. वे आज अपने सियासी वजूद की आखिरी खंदक की लड़ाई लड़ रहे हैं.
संघ विचारधारा का एक कमाल तो है. उसमें धीरज है. बरगद के पेड़ की शाखाएं और जड़ें धीरे धीरे लेकिन मजबूती से फैलती हैं. संघ को ज्ञान के नवोदय की अंतर्राष्ट्रीय परिघटनाओं से भले ज्यादा लेना-देना नहीं रहा है. अज्ञानी, कूपमंडूक, अर्धशिक्षित और संकीर्ण विचारधारा की बहुत बड़ी मासूम जनसंख्या को भावनात्मक तौर पर अपने साथ हमकदम करने को उसने तरजीह दी. संघ विचारधारा के फोकस में केवल जबानी जमा खर्च नहीं होता. जनजीवन की सामान्य और बुनियादी जरूरतों के साथ उस विचारधारा ने खुद का घालमेल किया है. संघ की व्यायाम शाखाओं के माध्यम से परस्पर जानपहचान और संबंध विकसित होने का तिलिस्म सबको समझ नहीं आता. आज शगल के तौर पर फेसबुक और व्हाट्सएप वगैरह में सामाजिकता दिखाई जा रही है. शिक्षा, चिकित्सा, स्वास्थ्य, वनवासी उत्थान, व्यायाम ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां कोई संघचालित और संघपोषित संस्था ने अपनी भूमिका की अनदेखी की हो.
एक बिंदु पर कम्युनिस्ट और यूरोपीय बुद्धि समर्थक वामपंथी कांग्रेसी, समाजवादी और रेडिकल लगते पढ़े-लिखे लोग भटक जाते हैं. वह बिंदु हिन्दू धर्म के असर का उपचेतन संसार है. भारत में हिन्दू अपनी बुनियादी प्रकृति में धर्म से छोड़छुट्टी नहीं कर सकते. यह अलग बात है कि धर्म की मूल समझ के बदले आज उसकी आड़ में विकृत आचरण का अधर्म साम्राज्य है. संघ की विचारधारा धर्म के क्षेत्र से अपने सियासी गंठजोड़ के साथ ही डुबकी लगाती रहती है. वह मनमोहन सिंह की तरह रेनकोट पहनकर नहीं नहाती. उसने वे प्रतीक चुने जो साधारण जनता को आसानी से समझ आते हैं.
गेरुआ रंग चुनना अनायास नहीं है. जानबूझकर बजरंग, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, गाय, गंगा, वंदेमातरम, राम मंदिर, लव जेहाद, श्मशान बनाम कब्रिस्तान जैसे लफ्ज चोचला या ढकोसला नहीं हैं.उनके पीछे मध्यवर्गीय जेहन की परम्परा बल्कि रूढ़ि का भी बौद्धिक शोषण है. वह आधुनिकों को शोशा लगता रहे. इन प्रतीकों के मुकाबले समाजवाद, पंथनिरपेक्षता, प्रगतिशीलता, आधुनिकता जैसे शब्द परम्परा के बदले प्रयोग की मांद से आते कमजोर पड़ते हैं. आधुनिक समाज वैज्ञानिकता का विचार भले ही पुख्ता हुआ करे.
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