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सिर से छत छीन कर कलाकारों का कैसा सम्मान

प्रशासन ने वादा किया था कि दिल्ली की मशहूर कलाकार कॉलोनी का कायाकल्प किया जाएगा. लेकिन यहां रहने वाले लोगों की ना-नुकर और पूंजीपतियों की लाभ कमाने की भावना ने इस परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया है.

स्थानीय कलाकारों से भरी रहने वाली सेंट्रल दिल्ली की कठपुतली कॉलोनी बीते आठ सालों से खबरों में बनी हुई है. इस कॉलोनी में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है और लोग अमानवीय स्थितियों में रहने के लिये मजबूर हैं. इस कॉलोनी में ऐसे कई कलाकार रहते हैं, जो कठपुतली कला से लेकर म्यूजिक, सर्कस के क्षेत्र में तमाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अवॉर्ड अपने नाम कर चुके हैं. 

साल 2009 में दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) की ओर से राजधानी दिल्ली को "स्लम-फ्री" बनाने की एक ड्राइव शुरू की गई थी. इस अभियान में कठपुतली कॉलोनी का कायाकल्प सबसे पहले किया जाना था. लेकिन पुनर्विकास का मॉडल बनने की बजाय यह कॉलोनी एक ऐसा उदाहरण बन गयी, जो विकास के 'टॉप-डाउन' दृष्टिकोण की खामियों को उजागर करता है.

गैर लाभकारी संस्था हेजार्ड सेंटर के प्रमुख दुनु रॉय के मुताबिक, साल 2009 में कठपुतली कॉलोनी के निवासियों से डीडीए ने कहा था कि जब तक आवासीय सुविधाओं को बेहतर नहीं कर लिया जाता, तब तक के लिये वे अस्थायी कैंपों में रहने चले जायें. रॉय का आरोप है कि जिस निजी रियल एस्टेट कंपनी, रहेजा समूह को कॉलोनी के पुनर्विकास का काम सौंपा गया था, उसने आवासीय जमीन के कुछ हिस्से का प्रयोग कॉमर्शियल रूप से करने की कोशिश की. ऐसा करना डीडीए के साथ तय किये गये मूल अनुबंध में शामिल नहीं था. रॉय के मुताबिक इस पूरे मामले में पैसे का बड़ा हेर फेर है. वहीं अन्य कार्यकर्ताओं का दावा है कि रहेजा समूह को यह जमीन औने-पौने दामों में बेची गयी. डीडीए अब तक इन आरोपों को पूरी तरह से खारिज करता आया है.

वादा अब भी अधूरा

आठ साल बाद भी बेहतर आवासीय सुविधाओं का वादा पूरा नहीं हुआ है. कठपुतली कॉलोनी के निवासी अपने पुराने घरों में ही जीवन काट रहे हैं. पिछले हफ्ते प्रशासन ने कुछ घरों को गिरा दिया था और लोगों को कैंपों में जाकर रहने के लिये कहा था. जो लोग इन कैंपों में रहने गये थे, वे वहां बुनियादी सुविधाओं का अभाव बताते हैं. सहायक पुलिक आयुक्त राजकुमार भारद्वाज के मुताबिक, यहां रहने वाले सभी लोगों को पहले से ही इस तोड़फोड़ के बारे में जानकारी दे दी गयी थी. उन्होंने दावा किया कि इसमें एनजीओ के अपने ही हित छिपे हुये हैं इसलिये वह यहां लोगों को भड़का रहा है. पुलिस की कार्रवाई साल 2013 में शुरू हुई थी और इसी के साथ पहली बार घर खाली कराये गये. दूसरी बार दिसंबर 2016 में ऐसा किया, जिसे काफी मीडिया कवरेज मिला था. 

अब तक करीब 1,000 परिवार इन अस्थायी कैंपों में रहने चले गये हैं. ऐसे ही एक कलाकार कठपुतली कला के लिए पुरस्कृत पुराण भट्ट ने भी पहले इसके लिये हामी नहीं भरी थी. फिर उन्होंने कहा, "हम जा रहे हैं ताकि आने वाली पीढ़ियों को बेहतर सुविधायें मिल सकें." अब इस कॉलोनी के लोग दो समूहों में बंट गये हैं, पहला जो इन कैंपों में जाने के लिये तैयार है और दूसरे जो ऐसा करने से मना कर रहे हैं. जो कैंपों में चले गये हैं वे परियोजना में हो रही देरी के लिये उन लोगों को जिम्मेदार मान रहे हैं जो अब तक इसके लिये राजी नहीं हुए हैं.

रॉय यहां के निवासियों के लिये न्याय की मांग कर रहे हैं, जिसके लिए बातचीत से ही रास्ता निकलेगा. लेकिन हालिया घटनाक्रम को देखकर आने वाले समय में वार्ताओं की संभावना नहीं दिखती.

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