Thursday ,21st November 2024

जेएनयू जैसे संस्थान क्यों मर रहे हैं धीमी मौत?

जेएनयू जैसे संस्थान क्यों मर रहे हैं धीमी मौत?

भारत सरकार ने देश के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, जेएनयू में एमफिल और पीएचडी की सीटों में बहुत भारी कटौती कर दी है. पहले जहां 1,068 सीटें थी वहीं अब नये दाखिले सिर्फ 130 सीटों पर होंगे. यानी 88 फीसदी की कटौती. जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) और देश की छात्र बिरादरी में इस फैसले से गहरा असंतोष और बेचैनी है. खासकर दलित और वंचित तबके के छात्रों को लग रहा है कि उनके मुंह से निवाला छीना जा रहा है. सीटों को कम करने के अलावा दाखिले की नई व्यवस्था के तहत मौखिक परीक्षा का महत्व लिखित परीक्षा से ज्यादा कर दिया गया है. आदेश का बचाव करते हुए केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने राज्यसभा में बताया, "हम शोध की गुणवत्ता में सुधार चाहते हैं. हम चाहते हैं और पीएचडी और शोध का काम फूले फले. ना सिर्फ शोध दुरुस्त हों बल्कि छात्रों की संख्या भी दुरुस्त करनी होगी.”

जेएनयू में सीट कटौती के विरोध को भी सरकार जायज नहीं मानती क्योंकि उसके मुताबिक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के नियम और मानक तय हैं. जावड़ेकर कहते है कि पूरी दुनिया में एक प्रोफेसर गाइड के साथ चार शोध छात्रों का अनुपात है, जबकि जेएनयू में एक और 25 का अनुपात था. उनके मुताबिक देश के 800 विश्वविद्यालयों में यही नियम लागू किया गया है. लेकिन इस तर्क के बाद सरकार अपनी जिस कमजोरी का जिक्र नही करती, वो है शिक्षकों की संख्या में कमी. जेएनयू में ही 300 खाली पदों को भरा जाना है. जेएनयू के राजनैतिक विवाद के बाद वहां अधिकार बनाम वर्चस्व की लड़ाई जैसी नजर आने लगी है. लेकिन कुल मिलाकर देखें तो बात किसी सीट में कटौती या शिक्षकों की कमी तक सीमित नहीं है, देश में उच्च शिक्षा की जो ओवरऑल बदहाली है उसमें ऐसी नौबतें तो आनी ही थीं. उच्च शिक्षा की संचालन और निगरानी संस्था यूजीसी का रवैया, विश्वविद्यालयों की नाक की लड़ाई, ईगो, अकादमिक माहौल, शोध के कार्यों को लचर स्थिति ने देश की उच्च शिक्षा के ग्राफ को नीचे गिरा दिया है. विश्व रैंकिग में भारतीय उच्च शिक्षण संस्थान हांफते नजर आते हैं.

मेधा पाटेकर जैसे सामाजिक कार्यकर्ता देने वाले देश के जाने माने संस्थान टाटा इंस्टीट्यट ऑफ सोशल साइंसेस (टिस) ने यूजीसी से पैसा नहीं मिलने के कारण कई शोध परियोजनाओं को बंद करके अपने 35 अध्यापकों को बर्खास्त कर दिया है. वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) से खबर है कि उसे 103 करोड़ रुपये यूजीसी को वापस करने पड़े, क्योंकि उस राशि का उपयोग ही नहीं हो पाया था. डीयू के पास 153 करोड़ रुपये की और ऐसी रकम है जिसे अगर आगामी 31 मार्च तक खर्च नहीं किया गया, तो वो भी वापस करनी होगी. जाहिर है सिर्फ सात दिनों की अवधि में अकादमिक गतिविधियों में इतनी बड़ी राशि का उपयोग किसी चमत्कार से कम न होगा. सरकार ने आईआईटी संस्थानों से ऐसे सभी पाठ्यक्रमों और केंद्रों को बंद करने को कहा है, जिनमें पिछले तीन साल से दाखिलों की दर कम है. उधर ओपन यूनिवर्सिटी सिस्टम से पीएचडी की मान्यता को लेकर भी हजारों शोधार्थी गहरे असमंजस और चिंता में हैं.

भारत की "बीमार” उच्च शिक्षा व्यवस्था के ये कुछ लक्षण मात्र हैं जो इन दिनों अखबारों की सुर्खियों में हैं. और जाहिर है निदान भी इन्हीं के भीतर छिपे हैं. हैदराबाद यूनिवर्सिटी, रामजस कालेज, हरियाणा सेंट्रल यूनिवर्सिटी, जेएनयू और जोधपुर विश्वविद्यालयों में अभिव्यक्ति और विमर्श की स्वतंत्रता पर हुए भयावह हमले जो हैं सो हैं. एक तरफ सरकारी या सरकार से सहायता प्राप्त उच्च शिक्षण संस्थानों की हालत ये है तो दूसरी तरफ निजी कॉलेज और निजी विश्वविद्यालयों की बाढ़ है. मात्रा और मुनाफे के लिहाज से वे खूब फल फूल रहे हैं. आखिर कैसे? उच्च शिक्षा के सरकारी क्षेत्र में स्थितियां क्यों बदतर हैं? मुख्य रूप से इसके तीन बड़े कारण हैं- राजनैतिक हस्तक्षेप, विजन का अभाव, और मानविकी विषयों की उपेक्षा या उनके प्रति उदासीन रवैया.

सरकारें मनमाने ढंग से नियम और नियामक संस्थाओं में निरंतर फेरबदल करती रहती हैं. 2009 और 2016 में बनी नई नीतियां इसका प्रमाण हैं. संघ प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित 51 कुलपतियों की बैठक में पिछले दिनों उच्च शिक्षा के "भारतीयकरण” का सुझाव दिया. ये छिपी बात नहीं है कि संघ की "भारतीयता” का आशय क्या है. कुलपतियों और कुलसचिवों की नियुक्तियां शुद्ध रूप से राजनैतिक नियुक्तियां बन गई हैं - ये अब खुला रहस्य है भले ही इसके लिये लंबी चौड़ी अकादमिक कसरतें की जाती हैं. राजस्थान विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति को पिछले दिनों हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद पद से इस्तीफा देना पड़ा. अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के कुलपति का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.

पीएचडी और एमफिल के दाखिलों और विश्वविद्यालयों में प्राचार्यों और सहायक प्राचार्यों की नियुक्ति के लिये कोई समवेत नीति नहीं है और इसमें इतने छेद हैं कि विश्वविद्यालय प्रशासन जैसा चाहे इसे तोड़-मरोड़ सकता है. यहां तक कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों और राज्यों के विश्वविद्यालयों में भी बड़ी खाई है - संवाद और समन्वय के स्तर पर भी और कामकाज के स्तर पर भी. जेएनयू टीचर्स एसोसियेशन की अध्यक्ष आयशा किदवई का कहना है, "उद्देश्य ये है कि पहले दाखिला बंद करो और फिर संस्थानों को. आज सभी विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों को एक साथ खड़ा होना चाहिये. ऐसा लगता है कि उन सभी जगहों को धीमी मौत की ओर धकेला जा रहा है जहां लोग स्वतंत्रता से सोच-विचार कर सकते हैं.”

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