चमड़े की फैशनेबल चीजों की असल कीमत चुकाते देश के कारीगर
कई पश्चिमी ब्रैंड्स के लिए भारत में चमड़े के जूते और बैग जैसी चीजें बनाने वाले कारीगरों की सेहत खतरे में है. देश में करीब 25 लाख लोग चमड़ा कारोबार में लगे हैं.
मजदूर चमड़ा कारखानों में कई तरह के रसायनों के साथ रोजाना कई घंटे काम करते हैं जिसका उनके स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ता है. इन्हीं कारणों से चमड़ा मजदूरों पर स्टडी करवाने वाले एक मानवाधिकार संगठन, इंडिया कमेटी ऑफ द नीदरलैंड्स (ICN) ने भारत के चमड़ा कारोबार की सप्लाई चेन में और अधिक पारदर्शिता लाने की मांग की है.
स्टडी में उत्तरी भारत के आगरा, पूर्व में कोलकाता और दक्षिणी राज्य तमिलनाडु के वनियमबदी-अंबूर क्लस्टर में स्थित लेदर इंडस्ट्री के गढ़ों को शामिल किया गया. यहां से जानवरों की खालें, चमड़ा, कपड़े, एक्सेसरीज और जूते चप्पल विदेशों में निर्यात किये जाते हैं. आईसीएन ने लिखा है, "बड़े स्तर के एक्सपोर्ट सेंटर खुलने से चमड़ा उद्योग में बहुत सारा रोजगार तो पैदा हुआ, लेकिन किस तरह से काम करवाया जा रहा है इसकी क्वालिटी पर ध्यान नहीं दिया गया."
रिपोर्ट में ध्यान दिलाया गया है, "मशीन ऑपरेटरों की गलती से उसमें फंस जाने जैसी कई दुर्घटनाएं होती हैं. कई कर्मचारी तब मारे जाते हैं जब वे कचरे की अंडरग्राउंड टंकियों को साफ करने उतरते हैं और जहरीली गैस से उनका दम घुट जाता है."
भारत दुनिया भर में चमड़े के जूते और कपड़े बनाने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश है. भारत में बनने वाले करीब 90 फीसदी चमड़े के जूते यूरोपीय संघ को निर्यात होते हैं.
कई छोटी, नियमित फैक्ट्रियों में काम करने वाले लोगों के पास किसी तरह का सामाजिक सुरक्षा कवच नहीं होता, जैसे कि सरकारी स्वास्थ्य बीमा या पेंशन इत्यादि. इनके बनाये लेदर प्रोडक्ट्स की दुनिया भर के बाजारों में जो कीमत मिलती है, उसकी तुलना में इन कारीगरों को बहुत ही कम पैसे मिलते हैं.
रिसर्चरों ने रामू नाम के एक कर्मचारी से बातचीत की. वह चमड़े की टैनिंग ईकाई में हैंडलर का काम करता था. वहीं काम के दौरान एसिड के आंखों में चले जाने से उसकी दोनों आंखें चली गईं. अब उसकी केवल 13 साल की बेटी ऐसे ही एक चमड़े के जूते बनाने वाली फैक्ट्री में काम करती है.
रिसर्च में पाया गया कि टैनरी में काम करने वाले कई लोग अक्सर बुखार, आंखों के संक्रमण, त्वचा रोग और कैंसर से ग्रसित होते हैं. जहरीले केमिकल के साथ काम करने वाले इन लोगों को किसी तरह के सुरक्षा उपकरण या सुरक्षित रहने की ट्रेनिंग कम ही दी जाती है. इस काम में ज्यादातर निचली जाति के दलित और मुसलमान लोग लगे हैं. कई बड़े ब्रांड भी अब अपने सप्लाई सेंटरों के हालात को लेकर सोचने लगे हैं. लेकिन रिपोर्ट में मांग की गयी है कि "कंपनियां अपनी पूरी सप्लाई चेन में पहचान और पारदर्शिता को बढ़ाते हुए टैनरीज तक भी पहुंचें."
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