राजेंद्र शर्मा
अब कोई कुछ भी कहे, एल एंड टी कंपनी वाले सुब्रमण्यम साहब की बात में हमें तो दम नजर आता है। सिंपल सी बात है। इतवार की छुट्टी यानी सोमवार, मंगलवार, बुधवार, बृहस्पतिवार...किसी भी दिन की छुट्टी की मजदूरों-कर्मचारियों को जरूरत ही क्या है? बिल्कुल टाइम वेस्ट। घर पर बैठकर बीवी का चेहरा ताकते रहो, ताकते रहो, ताकते रहो ; यह भी कोई करने वाला काम है। इससे अच्छा तो सातों दिन, बारहों महीना कारखाने, दफ्तर में काम करो। पैदावार ज्यादा तो मुनाफा भी ज्यादा और जीडीपी भी ज्यादा। और जीडीपी ज्यादा तो सरकार के खजाने में पैसा ज्यादा। यानी मालिक भी खुश और निर्मला ताई भी खुश। सिर्फ बीबी को खुश करने के चक्कर में देश की जीडीपी क्यों डुबो रहे हैं ये मजदूर-वजदूर।
इतनी अक्ल की बात करने में सुब्रमण्यम जी अकेले नहीं हैं। उनसे पहले इन्फोसिस वाले नारायण मूर्ति जी भी यही एडवाइज दे चुके थे। बस वो इतवार वगैरह की छुट्टी के चक्कर में नहीं पड़े थे और सीधे पाइंट पर आ गए। दिन में काम के घंटे कम से कम बाहर-चौदह तो होने ही चाहिए। और वह देश के प्रधानमंत्री, मोदी जी को फॉलो कर रहे थे। जब नारायण मूर्ति की कान में यह बात पड़ी कि मोदी जी दिन में अठारह-अठारह घंटे काम करते हैं, तो एकदम से उन्हें बोध प्राप्त हो गया। यही तो सारी समस्याओं का समाधान है, सारे रोगों की रामबाण औषधि है। सब ज्यादा घंटे काम करें, देश खुद-ब-खुद आगे बढ़ जाएगा। सुब्रमण्यम जी ने गेंद और आगे बढ़ा दी। सवाल उनकी कंपनी में शनिवार की छुट्टी नहीं देने पर पूछा गया था, उन्होंने इतवार की छुट्टी को भी नजर लगा दी।
सुब्रमण्यम साहब, मूर्ति साहब, मोदी साहब लोगों की बदकिस्मती से, इन मजदूरों-वजदूरों के साथ एक बड़ी प्राब्लम है। जब तक काम नहीं मिलता, तब तो फिर भी ठीक रहते हैं, पर काम मिला नहीं कि ये खुद को इंसान समझने लगते हैं। खुद को तो खुद को, अपनी बीबी, बच्चों को भी इंसान समझने लगते हैं। उनकी तरफ इंसानों की नजर से देखने लगते हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि किसी मिडास मंतर से सारे मेहनत करने वालों को मशीन बना दिया जाए? न कोई बीवी को निहारते बैठेगा और न छुट्टी के नाम पर किसी भी दिन की बर्बादी होगी। मजदूरी की झिकझिक भी खत्म।
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