Thursday ,21st November 2024

सरकार ने अगर ठोस कदम नहीं उठाये तो कई सालों तक सरकार को गरीबी, कुपोषण और भुखमरी पर भारी खर्च करना पड़ेगा.?

सरकार ने अगर ठोस कदम नहीं उठाये तो कई सालों तक सरकार को गरीबी, कुपोषण और भुखमरी पर भारी खर्च करना पड़ेगा.? ऑनलाइन मार्केटप्लेस पर जिन दुकानों को बेचने के लिए लिस्ट किया जा रहा है, उनमें से ज्यादातर गैर-जरूरी सामान की हैं, जैसे- गिफ्ट, स्टेशनरी, क्रॉकरी, कॉस्मेटिक, ब्यूटी पार्लर, सैलून, कैफे, मोबाइल शॉप और रेस्टोरेंट. अन्य देशों के मुकाबले कोरोना ने भारत की अर्थव्यवस्था को ज्यादा नुकसान पहुंचाया. भारतीय मध्यवर्ग इससे बहुत प्रभावित रहा. एक रिपोर्ट के मुताबिक यहां मिडिल क्लास आबादी में 3.2 करोड़ लोग घट गए. इन आंकड़ों का असल रूप ऑनलाइन मार्केटप्लेस पर बेचे जा रहे सामान में भी दिख रहा है. इंदौर, भोपाल , जबलपुर जैसे प्रदेश के लगभग हर बड़े शहर में छोटे व्यापारी दुकान बंद कर उसका पूरा सामान बेचने की कोशिश कर रहे हैं. भोपाल और इंदौर में जहां पिछले एक महीने में करीब आधा दर्जन लोगों ने अपनी दुकानों को बिक्री के लिए सोशल साईड पर लिस्ट किया, भोपाल में ऐसा करने वालों की संख्या करीब एक दर्जन रही. जिन दुकानों को बेचने के लिए लिस्ट किया जा रहा है, उनमें से ज्यादातर गैर-जरूरी सामान की हैं, जैसे- गिफ्ट, स्टेशनरी, क्रॉकरी, कॉस्मेटिक, ब्यूटी पार्लर, सैलून, कैफे, मोबाइल शॉप और रेस्टोरेंट. बिजनेस जर्नलिस्ट कहते हैंकी "लोग फिलहाल गैर-जरूरी सामान नहीं खरीद रहे. इसलिए ऐसा सामान बेचने वाले दुकानदारों की कमाई में भारी गिरावट आई है." लेकिन दुकानदारों के खर्चे कम नहीं हुए हैं. दुकान का किराया, बिजली का बिल और स्थानीय टैक्स उन्हें चुकाना पड़ रहा है. जब दुकान चलाने का खर्च कमाई से ज्यादा हो तो उनके पास दुकान बेचने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह जाता "सरकार की ओर से कहा जा सकता है कि ये दुकानदार, छोटे उद्योगों को दिया जाने वाला मुद्रा लोन लेकर अपनी स्थिति सुधार सकते हैं लेकिन जब अभी उनकी कोई कमाई नहीं है और निकट भविष्य में इसके बढ़ने का विश्वास भी नहीं है तो वे किस आधार पर लोन लेंगे यही नहीं कई तो बैंक के चक्कर ही काटते रहते है उन्हें लोन नहीं मिलता ?" छोटे दुकानदारों और व्यापारियों की समस्याओं से सरकारी संस्थाएं अनजान हों, ऐसा भी नहीं है. भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी हालिया रिपोर्ट में कोरोना की दूसरी लहर से अर्थव्यवस्था को 20 खरब रुपये का घाटा होने का अनुमान लगाया है और इसकी वजह स्थानीय लॉकडाउन के चलते घटी मांग को बताया है. इस रिपोर्ट में यह भी लिखा गया है, "जीवन और काम के तरीकों में बदलाव आए हैं. और घर से काम करना या ऑनलाइन शॉपिंग जैसे ये बदलाव आगे भी बने रह सकते हैं. जब मांग के पैटर्न में बदलाव आ रहा है तो कुछ कंपनियां बंद हो सकती हैं. कुछ व्यवसाय हमेशा के लिए छोटे भी हो सकते हैं." लेकिन रिपोर्ट में यह उम्मीद भी जताई गई है, "पहले से मौजूद जिन कंपनियों के उत्पादों की मांग बढ़ रही है, उनका विस्तार हो सकता है और कुछ नई कंपनिया उभर सकती हैं." भारतीय रिजर्व बैंक की इस टिप्पणी की जमीनी हकीकत हाल की एक मीडिया रिपोर्ट में देखी जा सकती है. रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक साल के दौरान पूरे भारत में 10 हजार मोबाइल दुकानें बंद हो गई हैं. यानी भारत में मौजूद कुल 1.2 लाख मोबाइल दुकानों में से 8% पिछले एक साल में बंद हो चुकी हैं. लॉकडाउन के चलते इन दुकानों के बंद होने से सबसे ज्यादा फायदा अमेजन-फ्लिपकार्ट जैसी ई-कॉमर्स कंपनियों को हुआ है. इसलिए अर्थनीति के मुद्दों पर लिखने वाले विवेक कौल आरबीआई की टिप्पणी पर कहते हैं, "हमें यह समझना होगा कि एक ओर अवसर पैदा हो रहे हैं तो दूसरी ओर जिंदगियां भी बर्बाद हो रही हैं." वहीं शिशिर सिन्हा का कहना है कि मास्क, पीपीई किट, फेस शील्ड, सैनिटाइजर जैसे उत्पादों की जिन कंपनियों के उभरने पर गर्व किया जा रहा है, क्या उनकी मांग कोरोना के बाद भी बनी रहेगी? आशाभरी बातों के बावजूद इन व्यापारियों और दुकानदारों के लिए भारत सरकार ने कोई ठोस प्रयास नहीं किया है. जानकार जोर दे रहे हैं कि बिना किसी सीधी सरकारी मदद के भारी आर्थिक झटका झेलने वाले इन छोटे व्यापारियों और दुकानदारों की स्थिति सुधारना मुश्किल है. शिशिर सिन्हा कहते हैं, "हम जान चुके हैं कि लोन इस समस्या का हल नहीं हैं. अब विचार करना होगा कि क्या इन्हें आर्थिक मदद दी जा सकती है." हालांकि फिलहाल ऐसा कोई भी विचार केंद्र और राज्यों के बीच लड़ाई को आमंत्रित करने वाला है क्योंकि दोनों नहीं चाहेंगे कि इस समय उनके राजस्व पर बोझ पड़े. शिशिर सिन्हा का सुझाव है, "दुकानों और व्यापार के बंद होने से बेरोजगार हुए लोगों के लिए शहरी मनरेगा शुरू कर सकते हैं. लेकिन इसे ग्रामीण मनरेगा से अलग स्किल आधारित बनाना होगा. जिससे न सिर्फ लोगों की आर्थिक गतिविधियां जारी रहें बल्कि उन्हें कुछ स्किल भी सिखाए जा सकें." हालांकि अर्थशास्त्री इस विचार के प्रति डर जताते हैं. वे कहते हैं, "भले ही यह सुझाव सुनने में अच्छा लगे लेकिन इसमें कई परेशानियां आ सकती हैं. देश में असंगठित क्षेत्र में करोड़ों लोगों की नौकरी गई है. इसमें काम करने वालों के पास कॉन्ट्रैक्ट और सैलरी स्लिप जैसे दस्तावेज भी नहीं होते, ऐसे में वे कैसे साबित कर सकेंगे कि उनकी नौकरी कोरोना के चलते गई." दूसरी ओर सरकारों के पास इतनी क्षमता नहीं है कि वे पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी बना सकें. ऐसे में पूरी प्रक्रिया में भ्रष्टाचार का डर बना रहेगा. "बेरोजगारी दर से ज्यादा चिंता लेबर पार्टिसिपेशन रेट (LPR) की होनी चाहिए. कम से कम पांच सालों से यह भी लगातार गिर रहा है." यानी बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो कुछ समय तक नौकरी नहीं मिलने के बाद नौकरी की तलाश ही छोड़ दे रहे हैं. ऐसे में भारत सरकार का डर बेरोजगार हुए लोगों को जल्दी काम पर लौटने पर होना चाहिए वरना न सिर्फ भारत में कई परिवारों की अगली पीढ़ियां गरीबी में जिंदगी गुजारेंगीं बल्कि अगले कई सालों तक सरकार को भी गरीबी, कुपोषण और भुखमरी पर भारी खर्च करना पड़ेगा.

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