धरने पर बैठे किसानों पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नजर पड़ने के बाद भारत की उपेक्षित महिला किसानों को इस आंदोलन में अपने लिए उम्मीद नजर आ रही है. वो इस अवसर का फायदा उठाकर अपनी पुरानी मांगों को फिर से दोहरा रही हैं. दिल्ली की सीमाओं पर धरना स्थलों से हजारों किलोमीटर दूर चेन्नई में रहने वाली पोन्नूथई कहती हैं कि यह आंदोलन उनकी और उनके जैसी दूसरी महिला किसानों की तरफ ध्यान खींचने में मदद कर रहा है. आंदोलन से प्रेरित हो कर उनका स्थानीय संगठन उन मांगों को लेकर नई याचिकाएं बना रहा है जिन्हें पहली बार कई दशकों पहले उठाया गया था. पोन्नूथई ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "दिल्ली के विरोध प्रदर्शनों ने हम महिला किसानों को पहचान दिला दी है. अब वो हमें और खेतों में हमारे योगदान को देख सकते हैं. हम अपनी मांगों को पहले से ज्यादा बुलंद आवाज में उठा रहे हैं, इस उम्मीद में कि हमारी आवाज भी सुनी जाएगी." ऑक्सफैम के मुताबिक भारत के गांवों में काम करने वाली महिलाओं में 75 प्रतिशत किसान हैं. इसके अलावा जैसे जैसे पुरुष शहरों में फैक्टरियों में निर्माण स्थलों पर काम करने के लिए गांव से पलायन कर रहे हैं, गांव में महिला किसानों की संख्या बढ़ती जा रही है. इसके बावजूद खेती को आज भी पुरुषों के काम के रूप में देखा जाता है. सिर्फ 13 प्रतिशत महिलाएं उस जमीन की मालिक हैं जिस पर वो खेती करती हैं. खेती में महिलाएं बड़ी संख्या में शामिल हैं फिर भी आम धारणा में किसान की छवि को पुरुषों से ही जोड़ कर देखा जाता है. इस वजह से उनके लिए सरकारी अनुदान और बैंक लोन जैसी मदद हासिल करना और एकजुट हो कर मोल-भाव करना और मुश्किल हो जाता है. दिल्ली के विरोध प्रदर्शनों ने महिला किसानों को अपनी मांगें सबके सामने रखने का एक मंच दिया है और इसी वजह से कई महिला किसान लंबी यात्रा कर दिल्ली भी पहुंच गई हैं. हीरा रौतेला उत्तराखंड में खेती करती हैं और उन्होंने दिल्ली जा कर विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया है. उनका कहना है कि उनसे जितना हो पाया, उन्होंने उतना समय किसानों को यह समझाने में लगाया कि महिला किसानों को क्या चाहिए. उन्होंने फोन पर बताया, "कृषि कानून एक मुद्दा हैं लेकिन हम प्रदर्शन कर रहे किसानों को यह भी बताते हैं कि पुरुष अगर ट्रैक्टर चलाते हैं तो महिलाएं खेतों में बीज रोपती हैं. महिला किसान अपनी मुश्किलों के बारे में लंबे समय से शिकायत करती आई हैं. उन्हें मंडियों तक पहुंचने में, खेती के लिए लोन लेने में, सरकारी सब्सिडी हासिल करने में और दूसरी सरकारी मदद हासिल में मुश्किल होती है. पोन्नूथई के महिला संगठन की सदस्य ज्योति नेमदुराई से फोन पर बताया कि हर महीने होने वाली किसानों की बैठक में महिलाओं को कहा जाता था कि यह जगह उनके लिए नहीं है और उन्हें बैठक से भगा दिया जाता था. ज्योति 10 साल से अपनी जमीन पर खेती कर रही हैं. वो कहती हैं, "शुरुआत में हमें कभी भी बोलने नहीं दिया जाता था. अब जा कर हमारी आवाज सुनी जा रही है." उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय स्तर पर किसानों के प्रदर्शन की वजह से राज्य के कृषि अधिकारी अब उन पर ध्यान दे रहे हैं. उन्होंने बताया, "हमारी मांग थी कि हमें सरकारी जमीन पर खेती करने की इजाजत दी जाए. अब वो सुन रहे हैं." दिल्ली के आंदोलन से प्रेरित हो कर, महिला किसानों के एक और संगठन 'मकाम' ने "इस बार, हमारे अधिकार" का नारा अपनाया है. संगठन के सदस्य अपनी मांगों को लेकर अभियान चला रहे हैं और अधिकारियों से भी मिल रहे हैं. संगठन की एक सदस्य शीला कुलकर्णी ने बताया, "हम उम्मीद कर रहे हैं कि इन प्रदर्शनों की वजह से उन महिलाओं को बल मिलेगा जो अपने लिए मान्यता के अलावा सस्टेनेबल कृषि की भी वकालत कर रही हैं." उन्होंने यह भी बताया, "महिलाएं अपनी मांगें लगातार उठाती रही हैं. ग्राम सभाओं की बैठकों में उन पर चर्चा करती रही हैं, अधिकारियों से उनके बारे में बात करती रही हैं और सड़कों पर प्रदर्शन भी करती रही हैं. सवाल लोहे के गर्म होने पर हथौड़ा मारने का है और यह उसके लिए बिलकुल सही समय है." गुजरात में रहने वाली खतीजाबेन खीराई 45 साल की हैं और उनके पांच बच्चे हैं. आजकल वो उन सरकारी कागजात का इंतजार कर रही हैं जिनकी वजह से उन्हें अपने पति के साथ अपनी जमीन का संयुक्त मालिकाना अधिकार मिल जाएगा. वो दिन तक बस में यात्रा कर के दिल्ली पहुंचीं ताकि वहां धरने पर बैठे किसानों का समर्थन कर सकें. उनका कहना है कि यात्रा के बाद वो आश्वासन महसूस कर रही थीं. वो कहती हैं, "हम गा रहे थे, नारे लगा रहे थे और जब हमने पुरुष किसानों को हमें सुनते हुए पाया तो उससे हमें अपने प्रदर्शनों को तब तक जारी रखने की नई ऊर्जा मिली जब तक हमारी मांगें पूरी नहीं हो जातीं.
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