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सिन्धी समाज की नई पीढ़ी पुरखो की इस ज़बान को अपनी सांसो में जगह देगी क्या

सिन्धी समाज की नई पीढ़ी पुरखो की इस ज़बान को अपनी सांसो में जगह देगी क्या

लेख - संजना प्रियानी

सिन्धी भाषा को भारत सरकार द्वारा मान्यता प्रदान किए जाने के 50 वर्ष पूर्ण हो चुके और सिन्धी भाषा अपने 51वे वर्ष में प्रवेश कर चुकी है पर इस भाषा का प्रचार प्रसार न होने से ये भाषा लुप्त सी हो चली है भारत में ये भाषा प्राचीन और समृद्ध भाषा रही और अब सिन्धी अपनों में ही बेगानी होती जा रही है जिसे लेकर सिन्धी साहित्यकार, शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता चिंतित है.दरिया-ऐ-सिंध के साहिल पर जब कोई सिन्धी ज़बान में सूफ़ी संतो की वाणी को आवाज़ देता है, तो ऐसा लगता है जैसे इंसानियत एकाकार होकर अपने ख़ुदा की बन्दगी कर रही हो.

सिन्धी भाषा दरिया-ऐ-सिंध के संग संग चली है. ये भाषा युगों युगों तक लाखों धड़कनों और सांसो की सहचर और सहभागी बनी. इस भाषा ने लाखों लोगों के भावों को अभिव्यक्ति दी, लेकिन जब सियासत ने धरती को बांटा तो भूगोल के साथ ये भाषा भी आहत हुई.

भोपाल के संतनगरी में रहने वाले “ महेश खटवानी “ पेशे से एक बैंक के कलेक्शन एजेंट है और साथ में बीजेपी के वरिष्ठ कार्यकर्त्ता भी है और तीन पीढियों में बीच की कड़ी है. उनके पुरखे विभाजन के समय सिंध से भारत चले आए थे. और बैरागढ़ में बस गए “ महेश खटवानी “ कहते हैं कि नई पीढ़ी पुरखों की इस ज़बान से दूर होती जा रही है और ये उनके लिए चिंता की बात है.

दुख इस बात का है कि नई पीढ़ी को इस ज़बान से कोई लगाव नहीं है. सिन्धी विभाजन के बाद एक ग्लोबल बिरादरी बन गई. इस बिरादरी ने बाज़ार के गुर सीखे और व्यापार में बहुत प्रगति की, मगर भाषा उनके हाथ से जैसे फिसल गई है.“ महेश खटवानी “, बताते हैं कि वो अपने पिता से हिंदी में बात करते हैं लेकिन अपनी मां से सिन्धी भाषा में वार्तालाप करते हैं. उनका कहना है कि शायद ये ही कारण है कि सिन्धी भाषा को मातिर भाषा कहते है. “ महेश खटवानी “  कहतें हैं, “हमने अपनी भाषा को घर में सहेज कर रखा है. मेरे बच्चो को भी यही कहता हु की ये हमारी मात्र भाषा है और हम ये सुनिश्चित करे की इसे जिंदा रखे .लेकिन नई पीढ़ी की बदलती प्राथमिकताओं पर “ महेश खटवानी “ ने चिंता जताई. उन्होंने कहा, "दुख इस बात का है कि नई पीढ़ी को इस ज़बान से कोई लगाव नहीं है. इस का एक पहलू ये भी है कि हिंदी ने इस समुदाय को अपने में इतना समाहित कर लिया कि वो हिंदी ही बोलने लगे. मगर हमें अपनी भाषा भी सलामत रखने की कोशिश करनी चाहिए.

भाषा के जानकार कहते हैं कि संस्कृत और प्राकृत सिन्धी ज़बान की बुनियाद रही हैं और इन भाषाओं में एक लय और माधुरता है. लेकिन उनका कहना है कि जब ये भाषा व्यवहार से ही हट जाएगी, तब इसे कौन पूछेगा.         उन्होंने कहा, “हमारी युवा पीढ़ी को सिन्धी गीत संगीत और खान पान तो अच्छा लगता है, मगर वे इस भाषा से परे हो गये है.

जब मैं सिन्धी में बात करता हु तो बच्चों की रूचि दिखती है, मगर जब सिंध और उसकी संस्कृति की बात आती है, तो बच्चो की आंखों में वो भाव नहीं आते जो हमारे बुजुर्गों की आँखों में तैरते हुए दिखते है.

बंटवारे ने जब इंसानी बस्तियों को अपनी जड़ों से बेदखल किया, तो इसमें नदी, नाले, इमारतें और दरख़्त तो वहीं रह गए, मगर ज़बान इंसान के साथ साथ चली आई. वे नई पीढ़ी के भाव पढ़कर कहते हैं, “देखिए मेरी बात कुछ और है. मुझे ऐसे लोगों से मिलने का मौका मिला जो सिन्धी भाषा से जुड़े़ थे. मेरी परवरिश भी ऐसे ही माहौल में हुई थी. “ महेश खटवानी “ कहते है की स्कूल में सिन्धी पढ़ने की बात तो छोड़ो, ये पीढ़ी तो घर में भी अपनी भाषा बोलने से ग़ुरेज़ करती है. भारत की तुलना में जो सिन्धी फार-इस्ट और इंग्लैंड जैसे देशों में रहते है, वो अपने घरों में धडल्ले से सिन्धी बोलते है. लेकिन जब बैरागढ़ के युवाओ को देखता हू तो उनमे इस भाषा की तस्वीर निराशाजनक है

“ महेश खटवानी से बात कर बहोत कुछ जाना पर इतिहास ने वो लम्हे देखे हैं जब इंसानियत दरबदर हुई, जब नई बस्तियां बनीं और इंसान को बसेरा दिया. लेकिन एक भाषा के लिए तो इंसान की धड़कन ,सांस और अहसास ही ठिकाना होते हैं. पर क्या सिन्धी समाज की नई पीढ़ी पुरखो की इस ज़बान को अपनी सांसो में जगह देगी

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