समाज की सत्ता संरचना की घुसपैठ बनी हुई है और लाभ व पितृसत्ता के लिए स्त्रियों को वस्तु बना दिया
समाज के यौनिक संगठन में ‘यौनिक आनंद’ की एक विशेषीकृत संस्था के बतौर मौजूद रहा है। वेश्यावृत्ति का कोई देशजता तलाशना काफी समस्यामूलक है, परंतु ऐतिहासिकता में गैर औद्योगिक वेश्यावृत्ति और औद्योगिक वेश्यावृत्ति के फर्क को समझना आवश्यक जान पड़ता है। वेश्यावृत्ति अपने सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक संदर्भ को स्वयं प्रदर्शित करता है। जाहिर है ऐसे में वेश्यावृत्ति का कोई सार्वभौमिक स्वरूप नहीं बनेगा, पर इसकी उपस्थिति सार्वभौमिक रहेगी। राजनैतिक आर्थिक संदर्भ में इसका स्वरूप लगातार बदलते रहे हैं। वेश्यावृत्ति में समाज की सत्ता संरचना (जेंडर, वर्ग और जाति) की घुसपैठ बनी रहती है और जिसके केंद्र में हमेशा स्त्री की यौनिकता है।
नारीवादी आंदोलन के दूसरी लहर यौनिक मौन को तोड़ती हैं, जहां ‘वेश्यावृत्ति’ जैसे शब्दावली को सेक्स वर्कके विमर्श द्वारा उभारा जाता है, तभी यह क्षेत्र यानी वेश्यावृत्ति मजबूत गठजोड़ के साथ में समस्याग्रस्त होता है। वेश्यावृत्ति के विविध आयाम के इतिहास, भूगोल को जानने और व्याख्यायित करने की प्रक्रिया यौनिक अर्थ व्यवस्था और यौनिकता के विमर्श को और प्रगाढ़ करती है। बावजूद इसके दक्षिण एशिया एवं अफ्रीकी समाजों में सामुदायिक वेश्यावृत्ति और औद्योगिक वेश्यावृत्ति जो कि परिवार के सहयोग और उसके समर्थन पर टिकी है, और वह परंपरा और आधुनिकता के बीच रिश्ता बनाती है। दरअसल इस तरह के समुदायों को एक सेक्सुअल वजूद के साथ देखा जाता है और उपनिवेशवाद की प्रक्रिया, नीति, नियम और कारण के जरिए कई बंधन लगा देता है। जाहिर है ऐसे में यह पूरा का पूरा समुदाय ही यौनिक अपराधी के रूप में मुख्य धारा के सामने प्रस्तुत होता है।
अंग्रेजों ने कुछ ऐसी जातियों को प्रतिबन्ध के लिए चिन्हित किया जो खानाबदोश थे, घुमक्कड़ थे। जिनके जीवन में बंजारापन था। और यह बंजारापन उन्होंने उन्मुक्त जीवन के लिए तय नहीं किया था बल्कि यह उनकी मजबूरी थी। संपत्ति के नाम पर इनके पास कुछ पशु और कुछ बर्तन रहता था। नाचना-गाना और करतब दिखाना पेशा था जिससे इनका जीवन निर्वाह होता था। औपनिवेशिक काल में राज्य सत्ता का मनना था कि इन खानाबदोश जातियों से समाज में नैतिकता का पतन हो रहा है और इनके वजह से समाज में यौन संबन्धों में खुलापन आ रहा है। इन खानाबदोश जातियों के पुरुषों को ठगी के तहत जेलों में बंद कर दिया गया, और महिलाओं को एक जगह रहने के लिए बाध्य कर दिया गया। 1871 में ‘अपराधिक जनजाति अधिनियम’ ने इन खानाबदोश जातियों को अपराधिक घोषित कर दिया गया। और इनका जीवन दूभर होता चला गया। पितृसत्तात्मक सामंती समाज में इस तरह की खानाबदोश समुदायों ने जीवन –निर्वाह के लिए परिस्थितियों से समझौता किया और वह पारिस्थितिक समझौता धीरे-धीरे परंपरा में तब्दील होती चचली गयी जो आज एक सामाजिक बुराई बन गयी है। भारत में भी ऐसी कई जातियां व समुदाय हैं जिन्होंने पूरी तरह से सामुदायिक वेश्यावृत्ति को अपना लिया है और साथ ही इसे परंपरा का नाम दे दिया है। इस संदर्भ में नट, कंजर, सौंसिया, बेड़िया, बाछड़ा आदि जातियों/ समुदायों को देखा जा सकता है। इस लेख में बेड़िया समुदाय को केंद्र में रखकर बात करना जरुरी है ।
बेड़िया समुदाय के बारे में कोई लिखित जानकारी नहीं मिलती और न ही मौखिक इतिहास में इसके बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं है। पर बेड़िया समुदाय की उत्पत्ति के बारे में दो कथाएं प्रचलित है। पहली कथा के अनुसार आज से लगभग 300 वर्ष पूर्व राजस्थान के भरतपुर में दो भाई रहते थे। एक का नाम था सैंसमुल और दूसरे का नाम था मुल्लानुर। सैंसमुल के वंशज सांसी और मुल्लानुर के वंशज बेड़िया या कोल्लासी कहलाए। इनके यहां यौन संबंधों को लेकर खुलापन था या कहें की स्वच्छंद यौनाचार की प्रथा थी। इस समुदाय की सभी स्त्रियां सभी पुरूषों के साथ यौन संबंध बना सकती थी।
डॉ. शरद सिंह अपनी पुस्तक ‘पिछले पन्ने की औरतें’ में लिखती हैं कि ‘‘इनके दल में स्त्री-पुरूष के बीच विवाह की बाध्यता नहीं रहती थी। कोई भी स्त्री आज एक पुरूष के साथ यौन संबंध बनाती थी तो कल दूसरे और परसो तीसरे के साथ। इसी प्रकार पुरूष भी किसी एक स्त्री के साथ संसर्ग में विश्वास नहीं रखते थे। ये लोग धार्मिक मामलो में भी निर्बंध थे। बेड़िया हिंदू अथवा मुसलमान कुछ भी हो सकते थे।” बेड़िया समुदाय की तरह ही भारत में बाछड़ा, नट, कंजर, संसिया, बोदिया, लोहरगढ़िया आदि समुदाय व जातियां हैं। इन जातियों ने भी नृत्य-संगीत के पेशे से होते हुए वेश्यावृत्ति तक का सफर तय किया है। इन जातियों व समुदायों के यहां भी यौनाचार पर बहुत कड़ा पहरा नहीं है बल्कि स्वछंद यौनाचार है। वैसे भी यौनिकता का सवाल संपत्ति के सवाल से जुड़ा हुआ है। भारत में ऐसे कई समुदाय या जातियां रही हैं जिनमें स्वछंद या मुक्त यौनाचार की व्यवस्था सहजता से रही है। बेड़िया, बाछड़ा, सांसी, कंजर आदि इसके उदाहरण हैं। कंजरों के बारे में ‘भगवान दास मोरवाल’ अपने उपन्यास ‘रेत’ में लिखते हैं ‘कंजर का अर्थ होता है कानन जंगल में विचरण करने वाला।’ इससे यह पता चलता है कि कंजर जंगल में रहने वाले नहीं हैं, बल्कि वे केवल विचरण करने वाले होते हैं या विचरण करते हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि कोई भी जाति या समुदाय जंगलों में विचरण क्यों करेगी? इसका एक ही कारण हो सकता है कि वह किसी के डर से जंगल में छुपने के लिए ऐसा कर रही हो, ताकि वह अपने शत्रु से बच सके। कंजर अपने आप को राजपूत मानते हैं। इनके यहां भी युद्ध और राजपूत सेना में होने का जिक्र मिलता है। ऐसा जान पड़ता है कि युद्ध में पराजित हो जाने पर जो कुछ लोग बच गए थे उन्होंने जंगलो में शरण लिथी । जंगल यानी कानन में शरण लेने की वजह से ही ये कंजर कहलायें। बाद में यह समुदाय भी जीविका के लिए वाया नाच-गाने से होता हुआ वेश्यावृत्ति तक पहुंचा। कंजरों के अलावा बाछड़ा, नट व सांसी जातियों का जीवन मूल्य व संस्कृति आपस में काफी मिलता-जुलता है।
यह पूर्णतया सत्य है कि सामुदायिक वेश्यावृत्ति करने वाली जातियां पूरी तरह से घुमक्कड़ एवं खानाबदोश रही हैं। अंग्रेज अधिकारी आर।बी। रसेल ने बेड़ियों के बारे में सन 1916 ई में टिप्पणी करते हुआ लिखा था कि ‘जिप्सियों की भांति पीढ़ी-दर-पीढ़ी खानाबदोश एवं जन्मजात घुमक्कड़ समूहों को बेड़िया कहा जाता है।
पद्मावत में मलिक मुहम्मद जायसी लिखते हैं ‘जानि गति बेड़िन दिखराई, बांह डुलाय जीऊ लेइ जाई’ यानी अपने नाचने की कला से बेड़नी दिल ले जाती है। यदि हम जायसी के रचना काल की बात करें तो वह 1570 के आस-पास ठहरता है। इससें पता चलता है कि बेड़िया समुदाय की मौजूदगी पूर्व से थी। ये नाचने-गाने के काम में पहले से संलग्न थे। यदि इन सब चीजों को आधार मान लिया जाय तो यह तय हो जाता है कि ये सूरवीरो से ही निकला हुआ एक समुदाय है जो युद्ध और जिंदगी से जूझते हुए वाया नाचने-गाने से वेश्यावृत्ति का रास्ता तय करता है जो कि ये खुद भी मानते हैं।
किसी भी समुदाय या समाज का जीवन आय के स्रोत्रों पर ही निर्भर होता है। आय के स्रोत जीवन-निर्वाह को प्रभावित करते हैं। जीवन-निर्वाह स्वास्थ्य के साथ-साथ पुनरूत्पादन को भी प्रभावित करता है। जीवन-यापन केवल आय के स्रोत पर ही निर्भर नहीं होता, बल्कि भौगोलिक स्थितियां व जीवन के अन्य पहलू व युद्ध की विभीषिका व सांस्कृतिक आयाम भी जीवन-यापन को तय करते हैं। बेड़िया समुदाय ने भी विभिन्न परिस्थितियों से संघर्ष के बाद ही इसे पेशे के रूप में शुरू किया और बाद में यह परंपरा बन गई।
वर्तमान समय में बेड़िया समुदाय का जीवन-निर्वाह पूरी तरह से स्त्रियों पर टिका हुआ है। इस समुदाय की आमदनी का स्रोत राई नृत्य है। राई नृत्य के साथ ही साथ ये स्त्रियां वेश्यावृत्ति भी करती हैं या कहें कि इन्हें ऐसा करने के लिए विवश किया जाता है। औपनिवेशिक काल में बेड़िया समुदाय के पुरूष चोरी और राहजनी पर निर्भर थे लेकिन अंग्रेजी हुकूमत के सख्ती के बाद इनको इससे पीछे हटना पड़ा और ये पूरी तरह से अपनी स्त्रियों की कमाई पर आश्रित होते चले गए। स्त्रियां जो कि अभी तक नाचने-गाने तक ही सीमित थी लेकिन अत्यधिक दबाव होने व पुरूषों की स्वीकार्यता के कारण वेश्यावृत्ति को चुना। ‘समाज में जारज कही जाने वाली संतानों से विकसित बेड़िया समुदाय के पुरूषों ने मेहनत-मजदूरी से बड़ी जल्दी नाता तोड़ लिया था। उन्हें औरतों के द्वारा कमाकर लाये जाने वाले धन के उपयोग की आदत पड़ चुकी थी।’ सामाजिक बदलाव का ताना-बाना गणितीय फार्मूले पर निर्भर नहीं करता। यह राजकीय प्रयासों पर भी उतना निर्भर नहीं होता जितना की विकास के नारे लगाए जाते हैं। सामाजिक बदलाव की कड़ी विकास से जुड़ती तो जरूर है, लेकिन यह पूरी तरह से इस पर लागू नहीं होती। सामाजिक बुराईयों को दूर करने के लिए सबसे जरूरी चीज है कि बुराई जिस समाज या समुदाय में व्याप्त हो उसको पता होना चाहिए की यह एक बुराई है तभी वह इसे दूर करने का प्रयास करेगा। अंबेडकर के शब्दो में ‘‘जिस दिन गुलामों को यह पता लग जाए कि वे गुलाम है और उनका शोषण किया जा रहा है वे उसी दिन आजाद हो जाएगें।’’ यही बात सामाजिक बुराईयों/ कुरीतियों पर भी लागू होती है।
बेड़िया समुदाय की सामाजिक स्थिति भूमंडलीकरण व विकास की गढ़ी गयी परिभाषा में दम तोड़ रही है। सामाजिक समरसता इनके लिए बेमानी है। वैसे भी समाजिक समरसता ‘अर्थगत’ होता है जो इनके पास नहीं है। बेड़िया समुदाय आर्थिक रूप से मजबूत नहीं है। बेड़िया समुदाय का सामाजिक विकास अभी तक नहीं हो पाया है, लेकिन परिवर्तन जरूर हुआ है। यह परिवर्तन सामंती व्यवस्था के कुछ कमजोर पड़ने के कारण हुआ है, लेकिन अभी अधिकांश बेड़िया समुदाय जिन स्थानों पर रहते हैं वहां की सामाजिक संरचना में सामंती व्यवस्था दृढ़ता के साथ मौजूद है। राजस्थान, मध्य प्रदेश व बुंदेलखंड में बेड़िया समुदाय आज भी उसी दंश को झेल रहा है। इसके सामाजिक ताने-बाने में अभी भी बहुत ज्यादा फर्क नहीं आया है।
परंपरा के नाम पर जो परिस्थितियां पहले से तैयार की गई थी वहीं परिस्थितियां आज भी यथावत है। जीविका के साधन व रहने तक के लिए जमीन नहीं है। सरकारी योजनाएं इनकी पहुंच से बाहर है और यदि कुछ है भी तो, वह इतना कठिन है कि वे इसे करना नहीं चाहते। पूंजीवाद ने बेड़नियों को अपनी आर्थिक संपन्नता की शरण देने के बदले उन पर जो परिस्थितियां आरोपित की उसे कोई भी सामान्य स्त्री किसी भी मूल्य पर स्वीकार नहीं करेगी। बेड़िया समुदाय की स्त्रियों ने न केवल इसे स्वीकार किया बल्कि इसका मूल्य भी चुकाया, जो आज भी जारी है। पूंजीवाद के बारे में कहा जाता है कि इसने सबसे अधिक स्वतंत्रता स्त्रियों को दी है। स्त्रियों को इसने ड्योढ़ी से बाहर निकाला है और काम के अवसर मुहैया कराया है। पूंजीवाद का यह एक पक्ष है। अपने लाभ व पितृसत्ता के लिए इसने स्त्रियों को वस्तु बना दिया है।
पूंजीवादी, सामंतवादी, जातिवादी व्यवस्था व पितृसत्ता किसी भी ऐसी परंपरा का विरोध नहीं करती जिसमें उसका लाभ निहित हो। लाभ का यह सिद्धांत आज भी पंरपरा के नाम पर जीवित है। समय के साथ भले ही इसका स्वरूप बदल गया हो या बदल दिया जाय लेकिन उद्देश्य नहीं बदलता। सामाजिक बदलाव, आर्थिक विपन्नता एवं परंपरा की कड़िया आपस में जुड़ती है। बिना परंपरा के बदले सामाजिक संपन्नता नहीं आ सकती और बिना अर्थिक संपन्नता के सामाजिक बदलाव करना बेमानी है। बेड़िया समुदाय अभी भी पूरी तरह से अपने पारंपरिक वेश्यावृत्ति और राई नृत्य पर ही निर्भर है।
राई नृत्य ‘मशाल’ की रोशनी से बाहर निकलकर ‘हाईलोजन’ के दूधिया प्रकाश में आ गई है, लेकिन सोहवतिया से लेकर गाने के बोल तक वहीं हैं और राई नृत्य का प्रयोजन भी। कैसी विचित्र बात है कि स्त्रियों की कला को स्त्री-देह से जोड़कर ही देखा जाता है। देवदासियों का भरतनाट्यम भी देह से ही जोड़कर देखा गया। भले ही इसे मंदिरों में देवताओं को खुश करने के लिए किया जाना वाला नृत्य का नाम देकर पर्दा डाला जाता रहा हो। इसकी शुरूआत भी कला के नाम पर नहीं बल्कि दैहिक शोषण के साथ हुई। भरतनाट्यम मंदिर से बाहर निकलकर संभ्रांत ब्राह्मणवादियों के हाथों में आया। इसे कला और व्यवसायिक बनाकर ब्राह्मणों ने देवदासियों को इससे दूर रखा। अभी तक राई नृत्य को अभी तक किसी ने कला के रूप में नहीं देखा है। इसे केवल अश्लीलता और देह से ही जोड़कर देखा जाता है। डॉ शरद सिंह लिखती हैं- ‘कितनी विचित्र हैं! न दिन के उजाले में जिस औरत के साथ पुरूष अछूत-सा व्यवहार करते हैं, रात के अंधेरे में वे ही पुरूष उस औरत की देह पर बिछे मिलते हैं। इस दोहरेपन के अंधेरे को जीने के लिए विवश रहती हैं वह औरत जिसे वेश्या, गणिका, नगरवधू, बेड़नी और न जाने कितने नामों से पुकारा जाता है। प्राचीन काल में सामाजिक श्रेष्ठता धारण करने वाले युवक काम शास्त्र के आसन सीखने इन्हीं औरतों के पास जाते थे। वापस आकर वे सीखी हुई कला को अपनी पत्नी अथवा प्रेमिका पर आजमाते थे। ये औरतें चौसठ कलाओं में निपुण होती थीं जिनमें से एक कला कामशास्त्र थी तो दूसरी नृत्य थी।’ इस संदर्भ में ‘राई नाचने वाली कहती हैं कि कभी भी पुरूष उसके कला पर ध्यान नहीं देते। वे कमर की लोच और गाने के बोल पर लट्टू होते हैं जबकि उसके जैसी ही अभिनेत्री भी नाचती है। यहां कला का कोई मोल नहीं है। इसी कला से अभिनेत्री लाखों रूपए कमाती है। वह कहती है कि केवल राई नाचकर परिवार का खर्च नहीं चलाया जा सकता। इसमें बहुत कम पैसे मिलते हैं और कोई भी केवल राई नृत्य की कला देखने के लिए हमें नहीं बुलाता।’
नृत्य जो एक मानवीय संवेग की अह्लादकारी अभिव्यक्ति रही है या होती है, वह चैसठ कलाओं में निपुण नगरवधुओं, देवदासियों एवं कोठों पर ही विकसित हुई है। जिस नृत्य के बदले पैसा प्राप्त किया गया उसे बजारू कहा जाता है और इसे वेश्या से जोड़कर देखा जाता है। लेकिन ‘बजारू’ की स्थिति सदैव जीवित रही क्योंकि मनोरंजन के नाम पर इसे धन देकर जीवित रखने वाले हमेशा उपस्थित रहे और आर्थिक विपन्नता के कारण यह पंरपरागत होता गया जो आज भी अपने उसी रूप में है। प्राचीन काल में जो गणिका अथवा वेश्या थी, वह आधुनिक काल में कॉर्ल गर्ल अथवा सेक्स वर्कर कहलाने लगी हैं। इसके अलावा कुछ नहीं बदला। केवल नाम बदल दिया गया। काम जस का तस। सभ्य समाज के लोग उनसे कामकलाएं तो ली लेकिन उनको उपेक्षित रखा। कोठों व तवायफों से कुछ कलाएं बाहर आयी। इसे कलागुरूयों ने शास्त्रीय रूप में ढाल दिया। इन कला के असली हकदारों के पास कला के नाम पर अब कुछ नहीं बचा है। इसका पेटेंट कलागुरूओं ने अपने नाम करा लिया है। राई नृत्य के साथ अभी वह स्थिति नहीं आई है। इसे अभी बाजार में उस तरह नहीं भुनाया जा रहा है जिस तरह से अन्य नृत्य कलाओं को भुनाया गया। राई नृत्य के अधिकांश स्टेप कई बड़े नृत्यकार ने अपने नृत्य में शामिल किया है। बेड़नी स्त्रियां इसे जानती तो हैं लेकिन इनके पास इसका कोई पेटेंट नहीं है। इनकी स्थिति तीसरी दुनिया के देशों की तरह हो गई है जिनका सब कुछ होते हुए भी उस पर अधिकार किसी और का होता है। बेड़िया समुदाय का भी यही हाल है। राई ये खुद नाचती है लेकिन इन पर अधिकार किसी और का होता है। यहां भी शोषण के सभी रूप मौजूद है। ‘आयोजक या उसके दलालों के बिस्तर पर से गुजरने वाली को अच्छे कार्यक्रम मिलते हैं। जब बेड़नियां किसी गांव में नाचने को बुलाई जाती है तो यह पहले ही तय हो जाता है कि बुलाने वाले में से किसको खुश करेंगी।’
लोक संस्कृति जिसे हम अपनी बुनियादी एवं वास्तविक संस्कृति का मूलाधार मानते हैं, उनके संरक्षण और संवर्द्धन के लिए मात्र उन लोगों को उत्तरदायी ठहराया जाता है जो अशिक्षित या आर्थिक रूप से कमजोर हैं। बार-बार इनके पिछड़ने का कारण अशिक्षित होना बताया जाता है जबकि पिछड़ने का कारण मनोरंजन के नाम पर चला आ रहा दैहिक शोषण है। यदि लोक-संस्कृति बदलाव की कड़ी से गुजरती है तो उसे स्वीकार नहीं किया जाता। आधुनिक बोध जैसे ही उसमें समाहित होता है उसे लोक से कटा हुआ मान लिया जाता है। वैसे भी समाज के नियंता आधुनिकता को संदेह के नजरिए से देखते हैं। इसलिए वे नहीं चाहते कि उनकी इच्छा के विपरीत कोई भी परिवर्तन हो और जब प्रश्न किसी कला को लेकर हो जिससे पुरूष अपनी कुंठाओं को शांत करता हो तो यह संभव ही नहीं कि इसमें बदलाव की चाह उसके अंदर हो। प्रदर्शित की जाने वाली किसी भी कला का स्वरूप चाहें परंपरागत हो या आधुनिक वह पूरी तरह से कला प्रेमियों, कला-ग्राहको व दर्शकों के चरित्र पर निर्भर करता है। यदि दर्शक कला के माध्यम से किसी विचार को प्राप्त करना चाहता है तो कला का स्वरूप शास्त्रीय होगा। जैसा कि फिल्मों के बारे में भी कहा जाता है कि कला फिल्मे व मनोरंजन फिल्में। और यदि कला के माध्यम से दर्शक अपनी कुंठाओं को शांत करना चाहता है तो कला अशास्त्रीय हो जाती है। इस तरह के कला को प्रदर्शित करने वाले कलाकार की यह विवशता हो जाती है कि या तो वह कला का प्रदर्शन न करे और यदि करे तो दर्शक की इच्छा के अनुरूप। यदि उसकी जीविका उसी कला पर निर्भर हो और अन्य कोई साधन नहीं है तो वह कला को दर्शक के अनुरूप ही प्रस्तुत करेगा। पितृसत्ता, राज्य व सामाजिक ढाचें का आपसी ताना बाना, शोषण के जिस बुनियाद पर टिका है उसके पड़ताल के लिए बने-बनाये ढाचे से काम नहीं चलता। इसके लिए पड़ताल तो जरूरु है लेकिन पड़ताल के लिए नजरिया व टूल्स वर्तमान सामाजिक संदर्भों व श्रम की मान्य परिभाषा अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन एवं श्रम का मार्क्सवादी दृष्टिकोण जरूरी है। वेश्यावृत्ति व ‘सेक्स वर्क’ में श्रम की उपयोगिता, राज्य का नियंत्रण, पितृसत्ता का दबाव भी काम करता है।
परंपरा के नाम पर हो रहा शोषण जिसे स्त्रियों के लिए ऐसा माहौल बना दिया गया है जिसमें वे इसे अपनी नियति मानती हैं। बेड़िया समुदाय की स्त्रियों के साथ पूरी साजिश के साथ ऐसा किया जाता रहा है जो अभी भी जारी है। परंपरा के नाम पर देह व्यापार शुरू करना आसान है लेकिन इससे निकलना मुश्किल। भारत में ऐसे समुदायों की स्थिति बहुत कम है जिनमें देह के धंधे को सामान्य माना जाता है। बेड़िया समुदाय में वेश्यावृत्ति को हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता जबकि सामान्य समाज में वेश्यावृत्ति को एक कलंक माना जाता है। यौन दासता में औरतों को जिन मुश्किलों से जुझना पड़ता है वे उसमें मुक्ति या पलायन के बाद भी खत्म नहीं होती।
मानवता के खिलाफ होने वाले किसी भी कार्य की निंदा होनी चाहिए और वेश्यावृत्ति की तो होनी ही चाहिए। वेश्यावृत्ति मनुष्यता की बदतरीन असफलताओं की एक मिसाल है। यह स्त्री शोषण की इंतहा है। पैसे के ताकत का खेल है। वेश्यावृत्ति एक ऐसा पेशा है जिसमें स्त्रियां एक दिन में 10 पुरूषों को यौन संतुष्टि प्रदान करने के बाद भी उन्हें अच्छा भोजन व रहने के लिए एक अदद मकान की समस्या बनी रहती है। वेश्यावृत्ति व सेक्स वर्कर बनने व बनाने के सवाल पर नारीवादियों में गहरा द्वंद है। लेकिन इतना तो सभी का मानना हैं कि यह स्त्रियों के शोषण के बुनियाद पर टिका हुआ है। यह अंतरंगता और वर्चस्व की संबंध की खरीददारी करने का मामला भी है। आधुनिक वेश्यावृत्ति या ‘सेक्स वर्क’ श्रम शोषण की आधुनिक पद्धति है। ‘सेक्स वर्कर’ और समुदायिक वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियों में काफी अंतर है। बेड़िया स्त्रियों ने अपनी मर्जी से इस पेशे का चुनाव नहीं किया है, बल्कि सामंती पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने परंपरा के नाम पर चली आ रही इस प्रथा को पेशागत बना दिया है। बेड़िया स्त्रियों के यहां स्वतंत्रता के जो मायने हैं वह पूंजीवादी वेश्यावृत्ति यानी ‘सेक्स वर्क’ से भिन्न है। बेड़िया स्त्रियां जिस स्थान पर रहती हैं वहां सामंतवादी संरचना का आधार काफी मजबूत है। और सामंतवादी संरचना अपने उपभोग के लिए परंपरा के नाम पर इसे बचाये रखना चाहता है।
बेड़िया स्त्रियों को इस पारंपरिक पेशे से निकालने के लिए राज्य ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करने के लिए केवल कागजी खानापूर्ति की है। कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। बेड़िया स्त्रियों को एक आम स्त्री में बदलने के लिए उनके वातावरण को बदलना आवश्यक है, जिससे वे विवशता के उन बंधनों से मुक्त हो सकें जिसे पुरूषों ने परंपरा के नाम पर अभी तक कायम रखा है।
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