Saturday ,12th October 2024

नये दलित उभार की दस्तक

भारत में दलितों के शोषण का सदियों का इतिहास है लेकिन उनके संघर्षों का भी उतना ही पुराना इतिहास है. हाल के सालों में दलितों के बीच एक नया उग्र उभार आया है. इसकी कमान गैर-राजनैतिक पढ़े-लिखे युवकों के हाथ में है.

गाय से लेकर धर्म परिवर्तन तक, समाज में छुआछूत से लेकर शिक्षा में भेदभाव और उत्पीड़न तक- भारत का दलित समुदाय, सवर्ण अतिवाद और उन्माद का शिकार बना हुआ है. इससे टकराने के लिए ये नयी दलित संवेदना, बरसों के उत्पीड़न और अस्मिता के संघर्ष को रेखांकित करती है. देश की कुल आबादी के एक चौथाई दलितों के बीच ये एक नई छटपटाहट है जिसे कभी ग्रेट चमार तो कभी चमार पॉप कहकर अभिव्यक्त किया जा चुका है.

सामाजिक पिछड़ेपन की कोशिशें दूर करने का जो काम भक्त कवियों और सूफी संतों के जरिए हुआ था, समाज सुधारकों के जरिए भी 19वीं सदी में हुआ था, 20वीं सदी में देश की आजादी से पहले ज्योतिराव फुले और महात्मा गांधी और भीमराव अंबेडकर के रूप में वो अलख बनी रही. लेकिन 21वीं सदी में, एक विकास-संपन्न देश विचार-विपन्नता में चला गया. निशाने पर वे कौमें आ रही हैं जो संख्या और संसाधन में हर लिहाज से बहुसंख्यक आबादी से कोसों पीछे हैं.

मायूसी और भय के बीच दलितों ने अपनी आवाज को नई हरकत दी है. संघर्षों की ऐतिहासिकता से एक नई चेतना आकार ले चुकी है. इसका कोई स्पष्ट चेहरा अभी नहीं है. कोई स्पष्ट एकजुटता भी नहीं दिखती है. लेकिन गुजरात से लेकर यूपी तक जिस तरह दलित युवाओं के दस्ते उत्पीड़न की घटनाओं पर मुखर और आंदोलित हैं उससे लगता है कि ये लोग आमने सामने की लड़ाई की ठान कर निकले हैं. हालांकि ये कितना खतरनाक है कि जब समाज में इस तरह परस्पर विद्वेष और हिंसा का दौर भड़केगा और अहिंसा के प्रतिमान गढ़ने वाले देश में एक दूसरे के खून के प्यासे लोगों की संख्या बढ़ती जाएगी. कानून की धज्जियां उड़ाती एक नई खुंखारी को हम इधर कभी लव जेहाद कभी गो रक्षा कभी देश प्रेम के नाम पर देख ही रहे हैं.

क्या ये दलित उभार सिर्फ ताकत की चाहत और राजनीतिक हिस्सेदारी का एक नया सनसनीखेज शॉर्टकट है? या इसमें हमें उन स्थितियों, योजनाओं, घटनाक्रमों और अत्याचारों की एक लंबी तफ्सील पर भी लौटना चाहिए जो दलितों के मानवाधिकारों को कुचलती हैं, उन्हें वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के मनुवादी बंटवारे में धकेले रखती हैं. आंकड़े बताते है कि पिछले दस साल में दलितों (एससी, एसटी) के खिलाफ अपराध 66 फीसदी की दर से बढ़े हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2015 में साढ़े 38 हजार से ज्यादा मामले, दलित उत्पीड़न के सामने आए. इनमें सबसे अधिक घटनाएं क्रमशः यूपी, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश में हुईं. दलितों के खिलाफ अपराध की सबसे ऊंची दर गोवा में है, 51 प्रतिशत. उसके बाद राजस्थान (48.4) और बिहार (38) की कुख्याति है. हर पंद्रह मिनट में एक दलित हिंसा का शिकार है. हर रोज दो दलितों की हत्या हो रही है देश में. हर दिन छह दलित महिलाओं से रेप की वारदात होती है. अन्य हिंसाएं जो हैं सो हैं.

सच्चर कमेटी की सिफारिशों पर अमल के लिए गठित कुंडु समिति ने अपने अध्ययन में पाया कि ग्रामीण इलाकों में सबसे बदहाल दलित हिंदू हैं. शहरों में भी उनकी स्थिति पिछड़े मुस्लिमों जैसी है. दलितों की साक्षरता दर सुधरी है. लेकिन सामान्य वर्ग की 74 फीसदी साक्षरता के मुकाबले उनकी दर 66 फीसदी ही है. लाभ भी पूरा नहीं मिल पा रहा है. सरकार द्वारा वित्त पोषित उच्च शिक्षा के अकादमिक संस्थानों में एससी के लिए 15 फीसदी और एसटी के लिए साढ़े सात फीसदी आरक्षण है. इससे दलित छात्रों के नामांकन की दर में पहले के मुकाबले कुछ सुधार तो आया है लेकिन एक तो ये अपेक्षित दर नहीं है और दूसरा उच्च शिक्षा में दलित छात्रों पर उम्मीदों का दबाव बनने लगता है और वे जो दबाछिपा या खुलेआम भेदभाव झेलते हैं, वो व्यथा ज्यादा तोड़ती है. एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट, 2011 के मुताबिक शिक्षा के निजीकरण का सबसे ज्यादा नुकसान दलितों को हुआ है क्योंकि उनके बच्चे महंगी शिक्षा से वंचित हुए हैं. सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस नाम की एक संस्था ने अपने एक सर्वे में पाया कि अनुसूचित जाति के परिवारों में सिर्फ 0.73 फीसदी घरों में कोई सदस्य सरकारी नौकरी पर है.

इंतहाई उत्पीड़न इस नये उभार का बायस बना है. उस टिप्पणी के साए में भी इसे समझ सकते हैं जो हैदराबाद यूनिवर्सिटी के छात्र रोहित वेमुला, अपने मार्मिक सुसाइड नोट के रूप में लिख कर छोड़ गये थे कि, "आदमी की कीमत उसकी फौरी पहचान और सबसे नजदीकी संभावना से जुड़ गई है. वो बस एक वोट एक संख्या एक चीज भर रह गया है.” 70 के दशक में महाराष्ट्र में जिस दलित चेतना के उभार को हम दलित पैंथर्स नाम के एक रैडिकल संगठन के रूप में जानते आए हैं, वो भले ही अपनी ताब खो चुका हो लेकिन उसकी तरह के कुछेक संगठन उभर आए हैं. गुजरात में तेजतर्रार युवा नेता जिग्नेश मेवाणी का आंदोलन हो या यूपी में युवा आंदोलनकारी चंद्रशेखर और उनकी भीम आर्मी का आह्वान. दलित अलग अलग संगठनों के जरिए एक वृहद विचार के नीचे जमा हो रहे हैं. खास बात ये है कि इसमें मुख्यधारा के उन नेताओं और राजनैतिक दलों के लिए कोई जगह नहीं है जो दशकों से दलितों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करते आए हैं. और दलित कल्याण की जगह जिनकी राजनीति एक मौकापरस्त तबीयत में ढेर हो चुकी है. चाहे वो महाराष्ट्र की आरपीआई हो या यूपी की बसपा या बिहार या तमिलनाडु के जातिगत दल या अखिल भारतीय कहलाने वाली कांग्रेस या वंचितो के "नायक” कहलाने वाले वाम दल.

भारतीय राजनीति की इसे चतुराई कह लीजिए या प्रवृत्ति कि ये हर उस आंदोलन को अपने भीतर सोखती आई है जो उसकी मुख्यधारा से अलग बहने लगता है. क्या नयी दलित चेतना का प्रवाह ऐसी ही किसी भूतपूर्व दुर्गति का शिकार होगा या एक नया रास्ता खोलेगा- इस सवाल का जवाब उस ऊर्जा की निरंतरता में छिपा है जो दलितों में इधर आई है

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