Tuesday ,3rd December 2024

अगड़ों की मिलावट या दलित का शुद्ध अन्न

उत्तर प्रदेश का सहारनपुर जिला जातीय संघर्ष की आग में झुलस रहा हैं. दलित और सवर्ण वर्ग के बीच हिंसा हुई है. ऐसी खबरें अक्सर आती रहती हैं लेकिन भेदभाव और अत्याचार से संबंधित हिंसा कुछ जगह तक सिमट कर रह जाती हैं.

सहारनपुर में भी दलित--सवर्ण हिंसा इसी क्रम में हुई. सहारनपुर में सुगबुगाहट काफी दिनों से थी. पहले भाजपा संसाद राघव लखनपाल ने आंबेडकर शोभा यात्रा को लीड किया जिसपर 20अप्रैल को सड़क दुधली गांव में बवाल हुआ. भाजपा कार्यकर्ता एसएसपी बंगले तक चले गए और मामला काफी उछला. स्थानीय लोगों की मानें तो तब भीम आर्मी ने मामले को भांप लिया कि इससे मामला दलित-मुस्लिम हो जायेगा. इसीलिए उन्होंने दलितों में एक संदेश भेजा और मामले में शांत रहने को कहा. उसके बाद 5 मई को महाराणा प्रताप शोभा यात्रा के अवसर पर फिर बवाल हुआ जिसमें एक व्यक्ति की मृत्य हो गयी.. दलितों का आरोप है कि लगभग दो दर्जन दलितों के घर जला दिए गए. संघर्ष तब से दलित बनाम सवर्ण हो गया है. अब ये धीरे धीरे पड़ोस के जिले जैसे शामली और मेरठ में भी फ़ैल गया और वहां भी बवाल हुआ.

संगठित होते दलित

इस बीच प्रदेश में एक नए संगठन का नाम सुनने को मिला, भीम आर्मी भारत एकता मिशन. संक्षेप में इसे भीम आर्मी कह कर ही संबोधित किया जाता है. 30 साल के एक युवा वकील के नेतृत्व में मात्र दो साल पुराने इस संगठन के पीछे दलित युवक लामबंद हो गए हैं और आमने सामने के लिए तैयार दिखते हैं. सहारनपुर में पुलिस से आमने सामने मोर्चा लेने के बाद भीम आर्मी ने पुलिस को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया. वहीं भीम आर्मी के समर्थक अब खुल कर दलित हित, सुरक्षा और अपने समाज की बात कर रहे हैं.

मौजूदा वक्त में भीम आर्मी के वालंटियर की संख्या लगभग 15000 बताई जाती हैं और समर्थक इस संगठन की पहुंच पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड सहित अन्य राज्यों में भी बता रहे हैं. सहारनपुर के स्थानीय पत्रकार आस मोहम्मद कैफ के अनुसार भीम आर्मी की शुरुआत लगभग दो साल पहले स्थानीय एएचपी कॉलेज में हुए बवाल से हुई. इस कॉलेज में ऊंची जाति का वर्चस्व था, दलित छात्रों के लिए अलग सीट, अलग नल से पानी पीना इत्यादि. इसी कॉलेज में चंद्रशेखर भी पढता था. उसने इस सब के खिलाफ मोर्चा खोला और फिर वो सबकी नजर में आ गया.

कैफ के अनुसार चंद्रशेखर ने भीम आर्मी भारत एकता मिशन का गठन किया. मकसद था दलित हितो की रक्षा करना. दलित युवाओं को जोड़ा गया और दलितों का एक मोटरसाइकिल जत्था तैयार हो गया जो दलित लोगों के बुलाने पर क्षेत्र में पहुंचने लगा. छुटमल गांव का रहने वाला चंद्रशेखर आजाद जो अपने नाम के आगे रावण भी लिखता है, भीम आर्मी का अध्यक्ष बन गया.

बीते दो सालो में भीम आर्मी ने अपना नेटवर्क फैलाना शुरू किया. नीला अंगोछा डाले हुए चंद्रशेखर ने गांव गांव घूम कर दलितों को लामबंद करना शुरू कर दिया. अभिवादन में जै भीम, मोटरसाइकिल के आगे भीम आर्मी, दरवाजों पर भीम आर्मी के स्टीकर आम हो गए. थाना, कचहरी के छोटे मोटे काम जिनके लिए दलितों को दौड़ना पड़ता था वो भीम आर्मी के बैज से होने लगे. संगठन की लोकप्रियता बढने लगी और दलितों का युवा वर्ग जो बाईक से चलता हैं, स्मार्टफोन इस्तेमाल करता है और बरसों पुरानी जाति व्यवस्था को नहीं मानता वो भीम आर्मी से जुड़ने लगा.

हालांकि 2017 के संपन्न हुए विधान सभा चुनाव में भीम आर्मी खुल कर किसी के पक्ष में नहीं आई, इस दौरान भीम आर्मी के अध्यक्ष चंद्रशेखर ने खूब इंटरव्यू दिए. लेकिन तब उनको किसी ने गंभीरता से नहीं लिया. चंद्रशेखर ने एक रिकार्डेड इंटरव्यू में बताया की दलितों को समझाया जाता है चुनाव के दौरान कि आप हिन्दू हैं और चुनाव बाद आप दलित हैं. हमारी मुख्य लड़ाई आरक्षण को बचाने और समान शिक्षा व्यवस्था लागू करवाने की है. चंद्रशेखर अब तीस साल के हैं और वकालत की पढाई की हैं.

इसी बीच कई घटनायें होती रही और भीम आर्मी दलितों की रोबिनहुड बन गयी. पिछले साल एक गांव में दलितों ने बोर्ड लगा दिया जिस पर लिख दिया-द ग्रेट चमार. इस पर बवाल हो गया क्योंकि वहां एक संगठन द ग्रेट राजपुताना पहले से था. अब दलित गर्व से कहता है कि हम चमार हैं. नया गांव के संजय सिंह कहते हैं कि भले ही वे कोई पदाधिकारी नहीं हैं भीम आर्मी के लेकिन उनको दलितों का समर्थन ज़बरदस्त मिल रहा हैं. फोन पर पूछने पर कि क्या वो दलित हैं संजय जोर से बताते हैं--हम चमार हैं.

भीम आर्मी ने बाकायदा संगठन बना लिया है जिसमें जिले से लेकर राष्ट्रीय पदाधिकारी भी हैं. एक ममता गौतम महिला विंग की प्रमुख हैं. फिलहाल पदाधिकारी भूमिगत हैं और फ़ोन पर बात नहीं कर रहे, कारण हिंसा में पुलिस ने चंद्रशेखर समेत कई लोगों पर मुक़दमे दर्ज किये हैं.

वैसे भीम सेना किसी भी राजनीतिक दल के पक्ष में खुल कर नहीं है लेकिन उसके उभरने से एक बार फिर दलित एकता का मुद्दा गरमा गया है. पिछली बार कांसीराम ने बसपा को लेकर दलितों को इकठ्ठा किया था तब उसमें सामाजिक जागृति मुख्य थी. अब दलित युवक पीछे किसी मामले पर हटने को तैयार नहीं हैं. लोगों की माने तो उन गांवों में जहां रात में हिंसा होने की आशंका थी वहां सैकड़ों दलित युवक आसपास के इकठ्ठा हो गए और रात भर रुके.

लेकिन भाजपा की ज़बरदस्त विजय के बाद अब भीम आर्मी ने फिर विपक्षी दलों को मुद्दा दे दिया हैं की दलितों की राजनीति शुरू की जाये.

देश में दलित चेतना के नवउभार के बीच दलितों पर अत्याचार के आंकड़े भी भयावह तेजी से बढ़े हैं. बात सिर्फ प्रगति और जागरूकता की होती तो दलितों के खिलाफ हिंसा का ग्राफ कम होना चाहिए था, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है.

दलितों में जागृति आ ही रही है कि नये हमले भी आ गए हैं और इनका स्वरूप और विकृत और बर्बर हुआ है. क्योंकि भारत कितनी भी आर्थिक तरक्की कर ले, पढ़ा लिखा होने का जश्न मना ले फिर भी यहां का समाज वैचारिक तौर पर अभी भी रूढ़िवादी जकड़नों से बाहर नहीं निकल पाया है और यहां की सवर्णवादी संरचना में जातिवादी दुराग्रह और वर्चस्ववादी पूर्वाग्रह धंसे हुए हैं. लोकतंत्र समानता आधारित समाज के निर्माण का सबसे कारगर रास्ता है लेकिन ये रास्ता दलितों के लिए बंद सा दिखता है. सबके हक की बात कहकर सत्ता वर्ग अपने हितों का ही पोषण करता जाता है और इन्हीं हितों में ब्राह्मणवादी रवैया भी आता है. जाहिर है लोकतंत्र को चुनावी राजनीति के तौर पर तो बरत लिया गया, लेकिन उसकी आत्मा को कभी अंगीकार नहीं किया गया. लोकतंत्र उसी वर्चस्ववादी समाज के खूंटे से बंधी गाय सरीखा बना रहा.
उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में पिछले सप्ताह एक दलित का गला काट देने वाला अध्यापक उसी कट्टर समाज का प्रतिनिधि है. वह एक चक्की से गेहूं पिसाने के लिए गया था जिस चक्की को एक दलित ने छू दिया और उस वर्णवादी श्रेष्ठता के सामने आ खड़ा हुआ था जो उस अध्यापक को विरासत में मिले थे. एक तरह की ये ऑनर किलिंग उत्तराखंड से लेकर तमिलनाडु तक फैली हुई है जहां पिछले दिनों एक कस्बे में एक दलित युवा को सरेराह दिनदिहाड़े इसलिए पीट पीटकर मारा डाला गया क्योंकि उसने उच्च जाति की एक लड़की से प्रेम करने का दुस्साहस किया था. हरियाणा, बिहार, राजस्थान, आंध्र प्रदेश- ऐसी घटनाएं किसी भी राज्य में कहीं भी हो जाती है. गुजरात के ऊना में दलित पहले गाय को मारने के लिए मारे जाते हैं फिर जब वे प्रतिरोध कर मरी गाय को उठाने से मना कर देते हैं तो उन्हें फिर मारा जाता है. दलित स्त्रियों पर अत्याचार की हिला देने वाली दास्तानों से ये समाज भरा पड़ा है.

कहा जाता था कि औद्योगीकरण और शहरीकरण के साथ आधुनिक मूल्यों का प्रसार होगा लेकिन ये सिद्धांत भारत के संदर्भ में नाकाम रहा. इसी अर्बन स्फीयर में दलित छात्रों की आत्महत्याओं के मामले नोटिस में आ रहे हैं. 2007 से अब तक उत्तर भारत और हैदराबाद में आत्महत्या करने वाले 25 छात्रों में से 23 दलित थे. इनमें से दो एम्स में और 11 तो सिर्फ हैदराबाद शहर में थे. उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार में दलितों के खिलाफ सबसे ज्यादा आपराधिक मामले प्रकाश में आए हैं. दक्षिण भारत में अविभाजित आंध्र प्रदेश का नंबर पहले आता है.

इंडिया टुडे पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट में दर्ज आंकड़ों के मुताबिक हर 18 मिनट पर एक दलित के खिलाफ अपराध घटित होता है. औसतन हर रोज तीन दलित महिलाएं बलात्कार का शिकार होती हैं, दो दलित मारे जाते हैं, और दो दलित घरों को जला दिया जाता है. 37 फीसदी दलित गरीबी रेखा से नीचे रहते है, 54 फीसदी कुपोषित है, प्रति एक हजार दलित परिवारों में 83 बच्चे जन्म के एक साल के भीतर मर जाते हैं. यही नहीं 45 फीसदी बच्चे निरक्षर रह जाते हैं. करीब 40 फीसदी सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों को कतार से अलग बैठकर खाना पड़ता है, 48 फीसदी गांवों में पानी के स्रोतों पर जाने की दलितों को मनाही है.
कानून कड़े कर दिए गए. दिसंबर 2015 में एससीएसटी संशोधन बिल भी पास हो गया लेकिन आर्थिक तरक्की में भी दलितों की भागीदारी बढ़ानी होगी. आर्थिक उदारवाद के हाशियों में ही वृहद दलित समाज रहा है. आरक्षण से कुछ सशक्तिकरण आया है लेकिन इस सशक्तिकरण के विपरीत दलितों पर बैकलैश की घटनाएं भी बढ़ी है. आरक्षण और संविधान द्वारा प्रदत अधिकारों ने दलितों के प्रति सवर्णों के एक हिस्से के जेहन में नफरत भी भर दी है जिन्हें लगता है कि दलित उनके अवसरों को हथिया रहे हैं.

ऐसी स्थिति में सरकारों का यह कर्तव्य है कि वह रोजगार और वृद्धि के अवसरों पर प्रकट तौर पर दिखते इन कथित असंतुलनों को दूर करे. कानून और संविधान एक दायरे में ही अपना काम कर सकते हैं, समाज में ही आंदोलन उभरेंगे तो शायद बदलाव संभव है. जागते हुए को आखिर कब तक पीछे धकेलेंगे. अगर दलित जाग रहा है तो सवर्ण को उन कारणों की छानबीन कर उनका समाधान निकालने में आगे आना चाहिए जिनसे अलगाव और अपराध बढ़ते हैं. जितना ये समाज दलितों से दूर जाएगा उतना ही अपने लिए अंधकार बढ़ाएगा.    

आप ऊंची जाति के हाथ का मिलावटी खाना खाना पसंद करेंगे या दलित के हाथ का शुद्ध और सेहतमंद खाना? इसी आइडिया के साथ एक दलित कारोबारी ने अपना कारोबार शुरू किया है.

चंद्रभान प्रसाद का बचपन भारत के आम बच्चों से अलग था. बचपन में ही उन्हें बार बार अहसास कराया गया कि वह दलित और अछूत हैं. जैसे जैसे उम्र बढ़ी भेदभाव भी बढ़ता गया. अगड़ी जातियों की ज्यादतियों से तंग आकर दलित पासी समुदाय के चंद्रभान प्रसाद ने हथियार उठाए. वह माओवादी बन गए और गरीब व भूमिहीनों किसानों के लिए लड़ने लगे. धीरे धीरे उन्हें हिंसा की राह भी अर्थहीन लगने लगी.

इस बीच चंद्रभान के परिवार के तीन सदस्य कैंसर से मारे गए. बस वहीं से चंद्रभान ने खाने पर ध्यान केंद्रित किया, "खाने में मिलावट एक बड़ी मुश्किल है और आज समाज में स्वास्थ्य को लेकर जितनी समस्याएं हैं, शायद उनकी सबसे बड़ी जड़ यही है."

हालात बदलने के इरादे से 58 साल के चंद्रभान कारोबार में उतरे. पत्नी के साथ मिलकर उन्होंने "दलित फूड्स" नामक कंपनी खोली. कंपनी इंटरनेट के जरिये मसाले, अचार और अनाज बेचती है. नई दिल्ली के दफ्तर से कारोबार चलाने वाले चंद्रभान कहते हैं, "मैं अलगाव और छुआछूत के साथ बड़ा हुआ, लेकिन भारत बदल चुका है. मैं देखना चाहता हूं कि जो लोग जन्मजात शुद्ध हैं वे मेरे प्रस्ताव पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं. मैंने 80 साल के स्वस्थ दलितों को देखा है जो कड़ी मेहनत करते हैं, शायद इसकी वजह यह है कि वे शुद्ध और अनप्रोसेस्ड खाना खाते हैं."

भारतीय संविधान के मुताबिक देश में जाति, भाषा, रंग और धर्म के आधार भेदभाव प्रतिबंधित है. लेकिन धार्मिक कर्मकांड कराने वाले पंडितों का व्यवहार अब भी सदियों पुरानी सोच से चल रहा है. भारत में कई जगहों पर आज भी दलितों को मंदिरों और जलस्रोतों में दाखिला नहीं मिलता है. कई ऊंची जातियां दलितों के हाथ लगे खाने को अशुद्ध मानती हैं.

भारत का पैकेज्ड फूड मार्केट तेजी से फैल रहा है. 2015 में यह 32 अरब डॉलर का कारोबार था. एसोचैम के मुताबिक 2017 तक यह 50 अरब डॉलर का कारोबार होगा. खाने पीने में मिलावट के बढ़ते मामलों के बीच ग्राहक शुद्धता को लेकर जागरुक भी हो रहे हैं.

चंद्रभान के मुताबिक बचपन में उन्हें और उनके परिवार को खुरदुरा खाना मिलता था. ऐसा खाना जो आम तौर पर नौकरों और मवेशियों के लिए रखा जाता था. इस खाने में बिना पॉलिस किया हुआ चावल और ज्वार-बाजरा होता था. चंद्रभान कहते हैं, "तब ज्वार-बाजरे को निचले तबके का खाना माना जाता था. आज वे इसे सुपरफूड कहते हैं. हम दलितों के खाने को इसी तरह लोकप्रिय करना चाहते हैं."

अब एक मशहूर होटल चेन भी दलित फूड्स के प्रोडक्ट खरीद रही है. चंद्रभान के मुताबिक शहरों में रह रहे भारतीय भी उनके प्रोडक्ट्स की बिक्री बढ़ा रहे हैं. बदलते वक्त के बारे में चंद्रभान कहते हैं, "हमने काफी तरक्की की है, लेकिन अब भी दलितों और अगड़ी जातियों के बीच समानता नहीं है. मेरा कारोबार एक सामाजिक प्रयोग भी है, जिसके जरिये मैं देखना चाहता हूं कि क्या भारत वाकई में बदला है, मैं देखना चाहता हूं कि क्या लोग शुद्ध खाने को लेकर अपने पूर्वाग्रहों से बाहर आने को तैयार हैं?"

 

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