भारत की राजनीति के मौजूदा परिदृश्य में चारों ओर बीजेपी का वर्चस्व नजर आता है. लेकिन इसने बीजेपी के सामने कुछ मुश्किलें भी खड़ी कर दी हैं. ऐसा लगता है कि वो अपने ही बनाए बहुमतवाद के बोझ में दब रही है.
इसका एक नजारा तब दिखा जब हिंदूवादी कही जाने वाली सरकार के महाधिवक्ता को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में उठे सवालों के जवाब में कहना पड़ा कि भारत हर हाल में धर्मनिरपेक्ष देश है और रहेगा. और ये उसकी संवैधानिक मर्यादा भी है. लेकिन ये कहते हुए बीजेपी सरकार को अपनी सहयोगी शिवसेना से कड़ी डांट पड़ गई जिसका आरोप है कि सरकार ने देश को धर्मनिरपेक्ष बताकर करोड़ों हिंदुओं का अपमान किया है और उन्हें धोखा दिया है. अपने मुखपत्रों के संपादकीय में शिवसेना ने बीजेपी को आड़े हाथ लिया कि आखिर वो किस बिना पर एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर देश को धर्मनिरपेक्ष बता रही है जबकि 2014 में उसकी प्रचंड जीत पर देश दुनिया में समर्थकों ने हिंदुत्व विजय का उत्सव मनाया था. शिवसेना यूं गाहेबगाहे बीजेपी पर अपने शब्दबाण छोड़ती आई है. इधर ये सिलसिला कुछ तेज और तीखा हुआ है. खासकर हिंदूवाद और पाकिस्तान विरोध के मुद्दों पर.
भारतीय संविधान के अनुरूप शासन व्यवस्था चलाने की जिम्मेदारी भी बीजेपी पर है. हाल की घटनाओं से भारत की अंतरराष्ट्रीय मंचों पर फजीहत की नौबत भी बनने लगी है जैसा कि पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की समीक्षा बैठक में देखने को मिला जब भारत को अपने यहां हो रहे मानवाधिकार उल्लंघनों की एक लंबी फेहरिस्त पर उतनी ही लंबी सफाई देनी पड़ी. भारत की ओर से महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने इस बात का खंडन किया कि मानवाधिकारों के प्रति सरकार सचेत नहीं है और धार्मिक आधार पर भेदभाव किया जा रहा है. रोहतगी ने कहा कि सरकार संविधान से बंधी है और अक्षुण्ण तौर पर सेक्युलर है. भले ही यूएन में भारत सरकार का ये आधिकारिक स्टैंड है लेकिन शिवसेना जैसे दल इसे उसका दोमुंहापन बता रहे हैं. क्योंकि जब सफाई देने की नौबत आती है तो बीजेपी ये कहती हुई दिखती है कि वो संविधान के तहत हर हाल में सेक्युलर मान्यताओं की पक्षधर है. दरअसल बीजेपी के लिए ये दुविधापूर्ण स्थिति भी है.
शिवसेना उसे सेक्युलरवाद पर फटकारती है तो दूसरी तरफ मानवाधिकार संगठन उसे देश की सेक्युलर छवि से समझौता करने के लिए कोसते हैं. अगर ये सिर्फ आरोप होते तो एक बात होती लेकिन घटनाएं और आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं कि न सिर्फ जातिगत और सांप्रदायिक टकराव बढ़े हैं बल्कि हिंसा और हत्या जैसी वारदातों में भी तेजी आई है. क्योंकि कट्टरपंथी और स्वयंभू संगठन खुलेआम कानून हाथ में लिए घूमते दिखते हैं. हिंदी पट्टी से लेकर पूर्वोत्तर और दक्षिण तक लव जेहाद से लेकर गो रक्षा और बूचड़खानों पर कार्रवाई के मामलों में ये देखा गया है. यूपी में पुलिस अधिकारियों पर ही जानलेवा हमले हो गए. जाहिर है इस तरह की हरकतें सरकारों की छवि पर दाग लगाती हैं. और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत को असहजता और शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है.
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का आरोप है कि बीजेपी सरकार, पाकिस्तान की तर्ज पर एक बहुसंख्यकवादी सिस्टम बनाने की ओर अग्रसर है. लेकिन बीजेपी का कहना है कि वो ‘सबका साथ सबका विकास' चाहती है. मानवाधिकार परिषद् में सिर्फ अल्पसंख्यकों पर ज्यादतियों के मामलों पर ही नहीं, और भी कई संवेदनशील मुद्दों पर भारत का पक्ष जाना गया. जैसे समलैंगिकता, चुनिंदा स्वयंसेवी संस्थाओं की विदेशी फंडिंग, महिला अधिकार, इंटरनेट पर पाबंदी, पैलेट गन, इलेक्ट्रॉनिक सर्विलांस और अफ्रीकी छात्रों पर हमले आदि. महाधिवक्ता की दी सफाई का कमोबेश ये निचोड़ था कि भारतीय संस्कृति यातना और उत्पीड़न की संस्कृति नहीं है. हालांकि जिस वक्त वो ये बातें वहां कह रहे थे तो इधर उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में दलितों के घर जलाने की घटनाएं हुईं थी और खुद महाधिवक्ता सुप्रीम कोर्ट में आधार कार्ड पर सरकार की आक्रामक पैरवी कर निकले थे. जिसमें उन्होंने कहा था कि नागरिक का अपने देह पर संपूर्ण अधिकार नहीं हो सकता है. उनकी इस टिप्पणी पर काफी विवाद भी हुआ और अलग अलग अर्थ निकाले गए.
सवाल ये है कि बीजेपी सरकार की देश में अलग सुर और विदेश में अलग सुर वाली ये दुविधा है या उसकी राजनीति का हिस्सा. ध्यान से देखें तो ये एक तीर से दो शिकार की उसकी रणनीति लगती है. देश के भीतर बहुसंख्यककेंद्रित राजनीति इस रूप में रखी जाए कि सरकार पर सीधे आक्षेप न आएं और बाहर, विभिन्न मंचों पर संविधान और सेक्युलरिज्म का डंका जोरशोर से बजाया जाता रहे. कुछ समय के लिए या एक तय अवधि तक तो ये रणनीति अपना काम करती रह सकती है लेकिन एक समय बाद ये उलटा मार भी कर सकती है. यानी इसके बूमरैंग होने का खतरा भी उतना ही तीव्र है जितना कि इसके टार्गेट पर निशाने. ये भी बीजेपी और उसके नेताओं को समझना होगा. क्योंकि देश में एक खास एजेंडे से सरकारें बनाई और चलाई तो जा सकती हैं लेकिन वे दीर्घ अवधि तक टिकाऊ तभी हो सकती हैं जब समावेशी विकास और बुनियादी खुशियों का ग्राफ बढ़ता रहे. तनाव भरे हालात में तो ये संभव नहीं.
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