जर्मनी में बिकने वाली एंटी बायटिक दवाओं का एक हिस्सा भारत में बनता है. एक दस्तावेजी रिपोर्ट का कहना है कि जिन परिस्थितियों में इनका उत्पादन होता है, उनसे खतरनाक मल्टी रेसिस्टेंट कीटाणुओं के फैलने का खतरा हो सकता है. जर्मनी टीवी चैनल एनडीआर, डब्ल्यूडीआर और दैनिक ज्युड डॉयचे साइटुंग के हैदराबाद में किये गये रिसर्च के अनुसार एंटी बायटिक दवायें बनाने वाली बड़ी भारतीय कंपनियों की उत्पादन प्रक्रिया में निकलने वाले गंदे पानी की ठीक से सफाई नहीं होने के कारण मल्टी रेसिस्टेंट कीटाणुओं के बनने में योगदान हो सकता है. एनडीआर ने ये रिपोर्ट गुरुवार को बर्लिन में पेश की. इस रिपोर्ट के अनुसार नवंबर 2016 में हैदराबाद की फार्मेसी फैक्टरियों के नजदीक लिये गये पानी के नमूनों में शेष एंटी बायटिक और फंगस रोधी दवा की मात्रा जर्मनी में प्रस्तावित सीमा से सौ गुना से 1000 गुना तक ज्यादा थी.
लाइपजिग मेडिकल कॉलेज के माइक्रोबायलॉजी विभाग के प्रमुख प्रो. आर्ने रोडलॉफ का कहना है कि फैक्टरी से निकले पानी में विकसित बैक्टीरिया बहुत कम समय में एंटी बायटिक के खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर लेता है. महामारियों पर शोध करने वाले डॉ. क्रिस्टॉफ लुबर्ट का कहना है कि प्रतिरोधी वायरस इस पानी से सीधे संपर्क या खाद्य सामग्री के जरिये मानव शरीर में पहुंच सकता है, जैसे कि अंतड़ी में. इसका नतीजा यह होगा कि इंफेक्शन की स्थिति में सामान्य एंटी बायटिक काम नहीं करेगा और मरीज की मौत भी हो सकती है. डॉ. लुबर्ट ने हैदराबाद में फार्मेसी कारखाने के निकट देखे गये सीवर को "खुले आसमान के नीचे स्थित बायो रिएक्टर" बताया और कहा, "ये कीटाणुओं का वैश्वीकरण है."
दस्तावेजी रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रतिरोधी बैक्टीरिया का बनना सिर्फ भारतीय नागरिकों के लिए ही खतरनाक नहीं है बल्कि पर्यटकों के लिए भी समस्या है. भारत जाने वाले बहुत से टूरिस्ट मल्टी रेसिस्टेंट बैक्टीरिया के साथ वापस लौटते हैं जो पहले उनके शरीर में नहीं था. "अदृश्य दुश्मन" नाम वाली दस्तावेजी रिपोर्ट का प्रसारण सोमवार रात को टीवी चैनल एआरडी पर होगा.
मल्टी रेसिस्टेंट कीटाणुओं पर बनी फिल्म में जिन वैज्ञानिकों से बात की गई है, उनका कहना है कि भारत को निशाना बनाना उनका मकसद नहीं है. उनके मुताबिक यूरोप में दवाओं के मामले में नियमों का अभाव है. यूरोपीय संघ में आयात से पहले दवाओं की क्वालिटी की जांच की जाती है, लेकिन कंट्रोलर उत्पादन वाले देशों में पर्यावरण की स्थिति पर ध्यान नहीं देते.
शोध करने वाले दवा निर्माताओं के संघ के प्रवक्ता रोल्फ होमके का कहना है कि विकासशील देशों में दवा बनाने के सिलसिले में पर्यावरण प्रदूषण के आरोप पहले भी लग चुके हैं. इसलिए संघ की सदस्य कंपनियों ने गत सितंबर में ऐसे कदम तय किये हैं ताकि दवा के उत्पादन की प्रक्रिया तक पहुंचा जा सके. भविष्य में विकासशील देशों के सप्लायरों की पर्यावरण के सिलसिले में भी जांच की जायेगी.
जर्मनी के स्वास्थ्य मंत्री हरमन ग्रोहे भी बेहतर औद्योगिक और पर्यावरण मानकों को जरूरी मानते हैं. उन्होंने कहा, "उद्यम पानी को जहरीले पदार्थों से गंदा न करें, यह बात आम होनी चाहिए. यह जरूरी है कि फार्मेसी कंपनियां अपना गंदा पानी उचित तरीके से साफ करें, और वह हर कहीं, विकासशील देशों में भी." बायो मेडिसिन और फार्मेसी रिसर्च संस्थान के फ्रित्स जोएर्गेल जुलाई में हैम्बर्ग में होने वाले जी-20 शिखर सम्मेलन को इस पर फैसले के लिए सही मंच मानते हैं. रोबर्ट कॉख इंस्टीच्यूट के महामारी विशेषज्ञ टिम एकमन भी कहते हैं कि फौरन कुछ किया जाना जरूरी है. "यह रेसिस्टेंट समस्या का हल नहीं है, लेकिन उसका एक हिस्सा है." उनका कहना है कि भारत यात्रा से लौटने वाले लोगों की हेल्थ स्क्रीनिंग पर विचार होना चाहिए.
दस्तावेजी फिल्म के लेखक विदेशों में प्रोडक्शन की परिस्थिति को जर्मन बाजार में गलाकाट प्रतिस्पर्धा से भी जोड़कर देखते हैं. उनका कहना है कि किफायती दवा बेचने की होड़ में 90 प्रतिशत एंटी बायटिक का उत्पादन भारत और चीन जैसे देशों में हो रहा है. लेखक क्रिस्टियान बार्स का कहना है कि फ्रैंकफर्ट स्थित यूरोप की अंतिम बड़ी दवा कंपनी होएक्स्ट ने 2016 में अपना प्लांट बंद कर दिया.
भारत में जर्मन रिसर्चरों की चिंता की आलोचना हुई है. नई दिल्ली में सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायर्नमेंट के उप प्रमुख चंद्र भूषण ने कहा, "औद्योगिक गंदे पानी को प्रतिरोधी बैक्टीरिया के इंसान में ट्रांसफर से जोड़ना बकवास है. प्रक्रियाएं अत्यंत जटिल हैं." चंद्र भूषण का कहना है कि रेसिस्टेंट बैक्टीरिया की समस्या दुनिया भर में है. "अमेरिका में एंटी बायटिक का सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है. वहां उसके अवशेष चिकन से जुड़े हर प्रोडक्ट में मिलते हैं."
मल्टी रेसिस्टेंट बैक्टीरिया का मुद्दा जर्मनी के लिए महत्वपूर्ण रहा है. चांसलर अंगेला मैर्केल ने 2015 में इसे जी-7 शिखर सम्मेलन के एजेंडे पर डालने की पहल की थी. बर्लिन के शैरिटी मेडिकल कॉलेज की एलिजाबेथ मायर की एक रिपोर्ट के अनुसार इस समय सालाना 700,000 लोगों की मल्टी रेसिस्टेंट बैक्टीरिया से मौत होती है. अगर इसे नहीं रोका गया तो 2050 तक यह संख्या बढ़कर 1 करोड़ हो सकती है.
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