Thursday ,21st November 2024

आर्थिक मोर्चे पर भारत की आशावादी उम्मीदें

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार सहयोगपरक संघवाद की ओर बढ़ती नजर आ रही है. केंद्रीकृत योजना की जगह अब राज्य सरकारों के सहयोग और सहमति से तैयार की गई विकेंद्रीकृत योजना ले रही है.

नई दिल्ली में सम्पन्न हुई नीति आयोग की बैठक में प्रधानमंत्री के भाषण और बैठक की समाप्ति पर स्वीकृत विजन दस्तावेज और अगले तीन वर्षों के लिए तैयार की गई अल्पकालिक कार्ययोजना को देखकर तो यही लगता है कि अब नेहरू युग की केंद्रीकृत योजना की जगह राज्य सरकारों के सहयोग और सहमति से तैयार की गई विकेंद्रीकृत योजना का युग शुरू होने जा रहा है. भारत की विविधता को देखते हुए देश का कामकाज चलाने के लिए संघीय प्रणाली को ही सबसे अधिक उपयुक्त माना जाता है ताकि केंद्र और राज्यों के अधिकारों के बीच सामंजस्य बना रहे और देश के प्रत्येक राज्य की सहभागिता सुनिश्चित की जा सके. पिछले कई दशकों से यह महसूस किया जाता रहा है कि देश का संघीय ढांचा कमजोर पड़ता जा रहा है और केंद्र सरकार के हाथों में ही सभी तरह की शक्तियां और अधिकार आते जा रहे हैं. इनमें वित्तीय संसाधनों का वितरण भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है.

नीति आयोग की बैठक बारहवीं पंचवर्षीय योजना की समाप्ति की पृष्ठभूमि में हुई है. नेहरू युग के कुछेक अवशेषों में से यह भी एक थी जिसकी अवधि 31 मार्च को समाप्त हो गई. प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने योजना आयोग को समाप्त करके उसकी जगह नीति आयोग का गठन किया था. जहां योजना आयोग के पास राज्यों पर नियंत्रण रखने के लिए प्रशासनिक और वित्तीय अधिकार थे, वहीं नीति आयोग का सरोकार मुख्यतः नीति-निर्धारण से है. रविवार को हुई बैठक से लगता है कि राज्यों की न केवल राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के निर्धारण में अधिक चलेगी बल्कि आंतरिक सुरक्षा और रक्षा जैसे क्षेत्रों में भी उनकी आवाज को अधिक महत्व दिया जाएगा. केंद्र और राज्यों के बीच इससे बेहतर समझदारी और तालमेल बनेगा. यूं भी नीति आयोग की गवर्निंग बॉडी में सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी सदस्य बनाया गया है जबकि पहले योजना आयोग के समय ऐसा नहीं था. अब ग्रामसभा के स्तर तक से सुझाव मंगाए जाएंगे और सभी सुझावों को ध्यान में रखकर नीतियां बनाई जाएंगी.

अगले पंद्रह वर्ष के लिए स्वीकृत विजन दस्तावेज में अर्थव्यवस्था को तीन गुना बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है. इसका अर्थ यह है कि सरकार मानकर चल रही है कि अर्थव्यवस्था में आठ प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से विकास होगा. यह कुछ अतिरेकमय आशावाद लगता है क्योंकि अगले पंद्रह वर्षों के लिए ऐसी भविष्यवाणी करना बहुत यथार्थपरक नहीं होगा. लेकिन सरकार आश्वस्त लगती है. मोदी ने राज्यों को यह सुझाव भी दिया है कि वित्तीय वर्ष को 1 अप्रैल से 31 मार्च के बजाय 1 जनवरी से 31 दिसंबर तक कर दिया जाए. राज्य सरकारें इस पर विचार करके केंद्र सरकार को अपनी राय से अवगत करायेंगी. प्रधानमंत्री ने एक बार फिर अपना यह सुझाव दुहराया है कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ कराए जाएं. इसी तरह राज्य वस्तु एवं सेवा कर को भी अविलंब लागू करने और पूंजी व्यय एवं आधारभूत ढांचे के निर्माण के काम में भी तेजी लाने का सुझाव दिया गया है. इन सब सुझावों का लक्ष्य देश का बेहतर आर्थिक और राजनीतिक प्रबंधन है.

यदि नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगड़िया की मानें तो अगले तीन वर्षों में स्वास्थ्य, आधारभूत ढांचे, कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर अधिक खर्च को संभव बनाने के लिए कार्ययोजना इस बात का आकलन कर रही है कि केंद्र और राज्यों को कितना राजस्व उपलब्ध होगा. लेकिन यदि केंद्र सरकार के पिछले अनेक वर्षों के बजट को ध्यान में रखें तो उनमें लगातार स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे क्षेत्रों पर आवंटित धनराशि में कटौती की गई है. कृषि भी अधिकांशतः उपेक्षित ही रही है. ऐसे में किस प्रकार अगले तीन वर्षों के दौरान  क्षेत्रों पर अधिक खर्च संभव होगा, समझना कठिन है.

नीति आयोग की बैठक में अनेक प्रकार के प्रशासनिक सुधारों पर भी चर्चा हुई और उनके लिए आवश्यक क़ानूनों के मसौदों की समीक्षा की गई. देश के तेज विकास के लिए प्रशासनिक चुस्ती जरूरी है और यदि ये सुधार अगले कुछ समय के दौरान कर दिये गए तो इसे मोदी सरकार की एक उपलब्धि माना जाएगा.

 

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