देश में युवाओं में आत्महत्या की दर वैसे तो ऊंची है. लेकिन मामूली बातों पर इतनी कम उम्र की किशोरियों की आत्महत्या की इन बढ़ती घटनाओं ने मनोवैज्ञानिकों को सकते में डाल दिया है.कोलकाता के एक प्रतिष्ठित स्कूल की छठी कक्षा में पढ़ने वाली 10 साल की श्रेष्ठा दे ने अपने सहपाठियों के साथ लंच को लेकर हुए विवाद के बाद इसी सप्ताह पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली. तीन दिन पहले पुणे में एक किशोरी ने देशी पिस्तौल से गोली मार कर आत्महत्या कर ली. उसे डर था कि घरवाले उसके प्रेम संबंधों को कबूल नहीं करेंगे. इसी तरह हैदराबाद में प्रेमी की ओर से अपनी तस्वीरें फेसबुक पर अपलोड किए जाने के बाद एक किशोरी ने आत्महत्या कर ली.
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि टूटते संयुक्त परिवार, माता-पिता का कामकाजी होना, बच्चों की छोटी-मोटी समस्याओं पर ध्यान नहीं देना और टीवी व इंटरनेट तक आसान पहुंच ने कम उम्र के बच्चों को भी स्वाभाव से जिद्दी और उग्र बना दिया है. इसकी वजह से उनमें मानसिक अवसाद बढ़ रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूयएचओ) के आंकड़ों के हवाले मनोवैज्ञानिक डा. इंदिरा राय मंडल कहती हैं, "भारत देश में आत्महत्या की दर 10 एशियाई देशों में सबसे ज्यादा है. यहां हर चार में से एक किशोर मानसिक अवसाद से पीड़ित है."
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की ओर से हाल में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि देश में रोजाना 14 साल तक की उम्र के आठ बच्चे आत्महत्या की राह चुन रहे हैं. अकेले पश्चिम बंगाल में हर साल लगभग तीन सौ किशोर किसी न किसी वजह से आत्महत्या कर लेते हैं. समस्या बढ़ रही है और बच्चों को परिवारों में भी सहारा नहीं मिल रहा है. मनोरोग विशेषज्ञ डा. सौमित्र घोष कहते हैं, ‘ज्यादातर एकल परिवारों में माता-पिता दोनों के कामकाजी होने की वजह से उनके पास बच्चों की समस्याओं पर ध्यान देने की फुर्सत नहीं होती. इससे लगातार कुंठा के चलते बच्चा मानसिक अवसाद की हालत में पहुंच जाता है.' वह कहते हैं कि माता-पिता को समय निकाल कर बच्चे की आदतों में होने वाले छोटे-छोटे बदलावों पर बारीक निगाह रखनी चाहिए. देश में बीते साल जारी राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि देश में कम से कम 15 करोड़ लोग मानसिक अवसाद से पीड़ित हैं. लेकिन इनमें से महज तीन करोड़ लोग ही विशेषज्ञों की सलाह लेते हैं.
किशोरों में बढ़ती आत्महत्या की इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए विशेषज्ञ जीवनशैली में बदलाव के अलावा कई अन्य कदम उठाना जरूरी मानते है. इसमें सबसे प्रमुख है कि माता-पिता बच्चों की गतिविधियों पर निगाह रखें और उनकी समस्याएं सुनें और उन्हें सुलझाने की कोशिश करें. मानसिक रोग विशेषज्ञ सब्यसाची मित्र कहते हैं, "पहले 10-12 साल के बच्चों को मौत के मतलब या इसके स्वरूप की कोई जानकारी नहीं होती थी. लेकिन अब वह जानते हैं कि अपमान व जिल्लत से बचने का यही सबसे बेहतर तरीका है. मरने के बाद कोई लौट कर नहीं आता." 10 साल की श्रेष्ठा की आत्महत्या का जिक्र करते हुए मित्र कहते हैं कि टीवी और इंटरनेट तक आसान पहुंच ने बच्चों को और जिद्दी, भावुक और बेहद संवेदनशील बना दिया है. अपने मन के मुताबिक काम नहीं होने पर वह आवेश में मौत की राह चुन लेते हैं. श्रेष्ठा के मामले में भी यही हुआ है. वह कहते हैं कि ऐसी घटनाओं के लिए जैविक के अलावा सामाजिक और मनोवैज्ञानिक वजहें भी जिम्मेदार हैं.
विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में किशोरों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ने के बावजूद 10-12 साल के बच्चों की आमहत्या की घटनाएं अब भी बिरल हैं. उनका कहना है कि कई बार बच्चे अपना अपमान या अपनी मांग ठुकराए जाने जैसी चीजों को स्वीकार नहीं कर पाते. मनोवैज्ञानिक डा. कहते हैं, "बच्चों के व्यवहार में किसी भी बदलाव का पता लगाने के लिए उन पर घर के अलावा स्कूलों में भी निगाह रखना जरूरी है. इसके लिए तमाम स्कूलों में एक काउंसिलर की नियुक्ति की जानी चाहिए ताकि ऐसी घटनाओं को रोका जा सके." अब इस हादसे से सबक लेते हुए श्रेष्ठा के स्कूल ने उसके साथ पढ़ने वाली तमाम लड़कियों की काउंसलिंग करने का फैसला किया है. मंडल कहते हैं कि देश के तमाम स्कूलों में अभिभावकों के साथ तालमेल रख कर नियमित रूप से ऐसे काउंसलिंग सत्र का आयोजन किया जाना चाहिए. विशेषज्ञों का कहना है कि संबंधित राज्य सरकारों को भी इस बारे में पहल करते हुए तमाम स्कूलों में काउंसलिंग अनिवार्य कर देनी चाहिए. डब्ल्यूएचओ की दक्षिण एशिया क्षेत्र की निदेशक पूनम क्षेत्रपाल सिंह कहती हैं, "अकेलापन मानसिक अवसाद को तेजी से बढ़ाता है. ऐसे में बच्चों को पर्याप्त समय देते हुए उनकी समस्याओं को सुन कर ऐसे हादसों पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है."
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