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दूर की कौड़ी है संसद में महिला आरक्षण

दूर की कौड़ी है संसद में महिला आरक्षण

देश में महिलाओं के सशक्तिकरण और राजनीति में उनके लिए आरक्षण की बात तो तमाम राजनीतिक दल करते हैं, लेकिन इसके बावजूद संसद और विधान सभाओं में महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण का बिल पास नहीं हो पाया है.

 

महिला सशक्तिकरण के तमाम दावों के बावजूद महिला आरक्षण विधेयक बीते दो दशकों से संसद में अटका है. पहली बार संसद में पेश होने के कोई 14 साल बाद उक्त विधेयक को काफी हील-हुज्जत के बाद वर्ष 2010 में राज्य सभा ने पास तो कर दिया था, लेकिन लोकसभा में इसे अब तक पारित नहीं किया जा सका है. हाल में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने एक बार फिर महिलाओं की राजनीति में भागीदारी का समर्थन किया है. संयुक्त राष्ट्र की ओर से हाल में जारी एक रिपोर्ट में भी महिला आरक्षण की वकालत की गई है. इस मुद्दे पर तमाम राजनीतिक दलों की राय समान है. महिला दिवस के मौके पर तो इससे संबंधित तमाम वादे भी किए जाते हैं. लेकिन उसके बाद फिर यह मामला ठंढे बस्ते में चला जाता है. अब कई महिला संगठनों ने एक बार फिर इस विधेयक को शीघ्र पारित करने की मांग उठाई है.

 

राष्ट्रपति ने की वकालत

 

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी अब संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने की वकालत की है. इसी सप्ताह चेन्नई में एक कार्यक्रम में उनका कहना था कि महिलाओं को सम्मान नहीं देने वाला कोई समाज खुद को सभ्य नहीं कह सकता. उन्होंने कहा कि अब भी अक्सर महिलाओं पर अत्याचार की खबरें सामने आती हैं. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की गणना करते समय देश के विकास में महिलाओं के योगदान को मान्यता नहीं दी जाती. महिलाओं को उनका वाजिब हक नहीं देने वाले समाज को सभ्य कहलाने का अधिकार नहीं है.

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का कहना है कि समाज में महिलाओं को उचित सम्मान दिलाने के मामले में अभी काफी कुछ किया जाना है. वह कहते हैं, "भारत में महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार होने के बावजूद लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व महज 11.3 फीसदी है जबकि इस मामले में वैश्विक औसत 22.8 फीसदी है." भारत के पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी संसद में महिलाओं का अनुपात भारत से ज्यादा है. इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन  की 193 देशों की सूची में संसद में प्रतिशत भागीदारी के मामले में भारत का स्थान 148वां है.

 

संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट

 

संयुक्त राष्ट्र ने भी हाल में जारी अपनी एक रिपोर्ट में संसद जैसी लोकतांत्रिक तरीके से चुनी जाने वाली संस्थाओं में महिलाओं के लिए कोटा तय करने की वकालत की है. रिपोर्ट में कहा गया है कि पंचायती राज संस्थाओं में आरक्षण से लैंगिक भेदभाव कम करने में सहायता मिली है. संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट को दिल्ली में केंद्रीय वाणिज्य व व्यापार मंत्री निर्मला सीतारमण ने जारी किया. इसमें कहा गया है कि 110 से भी ज्यादा देशों में संसद में महिलाओं के लिए किसी न किसी किस्म के आरक्षण का प्रावधान है.

सीतारामन ने इस मौके पर कहा कि सरकार ने महिला सशक्तिकरण के लिए बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, स्वच्छ भारत योजना, प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना व मुद्रा जैसी कई योजनाएं शुरू की हैं. लेकिन आरक्षण के सवाल पर वह भी चुप्पी साध गईं. संयुक्त राष्ट्र की उक्त रिपोर्ट से महिला आरक्षण के मुद्दे को बल मिला है.

 

महिला आरक्षण विधेयक

 

देश में तमाम राजनीतिक दलों के पितृसत्तात्मक रवैये की वजह से महिलाओं को संसद में आरक्षण देने संबंधी विधेयक बीते 20 साल से भी लंबे समय से अटका है. वर्ष 1996 में तत्कालीन देवेगौड़ा सरकार ने इस विधेयक को संसद में पेश किया था. कोई 14 साल के बाद राज्यसभा ने तो वर्ष 2010 में इसे पारित कर दिया. लेकिन लोकसभा में अब तक पारित करना तो दूर किसी भी पार्टी ने ढंग से इस पर बहस तक में दिलचस्पी नहीं ली है. बीते दो दशकों के दौरान इस विधेयक को लेकर संसद में काफी नाटक हो चुका है. एक बार तो विपक्षी सदस्यों ने राज्यसभा के अध्यक्ष हामिद अंसारी पर हमले तक का प्रयास किया था. उक्त विधेयक में संसद व राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की बात कही गई है.

देवेगौड़ा सरकार के कार्यकाल के दौरान विवाद के बाद इस विधेयक को संसद की एक संयुक्त समिति के हवाले कर दिया गया. उसके बाद 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने इसे दोबारा लोकसभा में पेश किया. लेकिन तब भी इस पर काफी हंगामा हुआ. उसके बाद वर्ष 1999, 2002 और 2003 में इसे फिर पेश किया गया. दिलचस्प बात यह है कि बीजेपी, कांग्रेस और लेफ्ट खुले तौर पर तो इस विधेयक का समर्थन करते रहे. बावजूद इसके यह किसी न किसी बहाने संसद में पास नहीं हो सका. आखिर वर्ष 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने इसे राज्यसभा में पेश किया. दो साल तक चली खींचतान के बाद ऊपरी सदन ने नौ मार्च, 2010 को इसे पारित कर दिया. तब बीजेपी व लेफ्ट के अलावा कई अन्य दलों ने भी इस मुद्दे पर कांग्रेस का समर्थन किया था. लेकिन उसके बाद बीते छह वर्षों से यह लोकसभा में लंबित है. राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी और जनता दल (यू) जैसे राजनीतिक दल इसका कड़ा विरोध करते रहे हैं. इसके लिए वे तमाम दलीलें देते रहे हैं.

 

सोच बदलने की अपील

 

लेकिन महिला कार्यकर्ताओं ने इसके लिए राजनीतिक दलों की पितृसत्तात्मक सोच को जिम्मेदार ठहराया है. जानी-मानी कार्यकर्ता अरुणा राय कहती हैं, "संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में देश वैश्विक औसत से काफी पीछे है." वह कहती हैं कि इस विधेयक को कानून की शक्ल देने के लिए तामाम दलों के शीर्ष नेतृत्व को अपनी सोच बदलनी होगी. ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वुमेंस एलायंस की महासचिव किरण मोघे कहती हैं, "बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में इस विधेयक को पारित करने का वादा किया था. बहुमत में होने के नाते उसके लिए यह काम आसान है. लेकिन वह भी चुप्पी साधे बैठी है. इससे पता चलता है कि इस मामले में तमाम दलों की मानसिकत एक जैसी है." वह कहती हैं कि इसके लिए बीजेपी की महिला नेताओं को भी सरकार पर जोर डालना होगा.

इस विधेयक को शीघ्र पारित करने की मांग में बीते दिनों दिल्ली में प्रदर्शन करने वाले महिला संगठनों ने भी राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व से बदलते समय के साथ अपने सोच में बदलाव लाने की अपील की है. सेंटर फार सोशल रिसर्च की निदेशक रंजना कुमारी कहती हैं, "राजनीतिक दलों का शीर्ष नेतृत्व महिलाओं को राजनीति में आगे बढ़ाने में दिलचस्पी नहीं लेता. उनको लगता है कि विधेयक पारित होने के बाद उनके हिस्से की मलाई कम हो जाएगी." आंकड़ों के हवाले कहते हैं कि लोकसभा के 543 सदस्यों में महिलाओं की तादाद महज 65 है जबकि राज्यसभा में यह तादाद महज 31 है.

 

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