प्रेरणा देशपांडे
महिलाएं आज भी, खास तौर से भारत और दक्षिण एशिया में, गरीबी और बिना पैसे के काम का सबसे ज्यादा बोझ उठाती हैं. यह उनकी गरीबी और पुरुषों के मुकाबले सुविधाओं में भेदभाव बढ़ाता है.
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की हाल ही में हुई वार्षिक सम्मेलन के बीच, एंटी-पॉवर्टी एनजीओ ऑक्सफैम इंटरनेशनल की एक नई रिपोर्ट ने अमीर और गरीब के बीच की बढ़ती दूरी की ध्यान खींचा है. 'टेकर्स नॉट मेकर्स' शीर्षक वाले इस रिसर्च रिपोर्ट में यह दिखाया गया है कि कैसे अरबपतियों की संपत्ति औपनिवेशिक धरोहरों के बल पर जमा हुई है.
आर्थिक मामलों में यह असमानता खासकर महिलाओं और अल्पसंख्यकों के लिए चिंता पैदा करती है. तुलनात्मक रूप से कम महिलाएं ज्यादा अमीर हैं बल्कि ज्यादातर महिलाएं गरीब हैं. दुनिया की दस में से एक महिला 10.3 % अब भी अत्यधिक गरीबी में जी रही है: वे एक दिन में 200 रुपय से भी कम कमाती हैं.
आर्थिक और लैंगिक असमानता की औपनिवेशिक जड़ें
रिपोर्ट में साफ तौर पर यह बताया गया है कि अरबपतियों की संपत्ति मुख्य रूप से औपनिवेशिक संपत्ति की धरोहर की वजह से बढ़ी है. इसके साथ ही गरीबी के कुचक्र में महिलाओं के फंसने में भी औपनिवेशिक दौर ने बड़ी भूमिका निभाई है.
नकदी फसलों की शुरुआत और औपनिवेशिक आर्थिक नीतियों ने व्यवस्थित रूप से महिलाओं को औपचारिक बाजारों से बाहर कर दिया था. ऐसे में पुरुषों पर उनकी आर्थिक निर्भरता बढ़ जाती थी. इन फसलों को उगाने से लेकर बाजार में बेचने तक में पुरुषों की भूमिका ज्यादा थी. इससे पहले बाजार की इसमें भूमिका नहीं होने के कारण महिलाओं की इसमें अहम भागीदारी होती थी. यह भागीदारी उनके लिए अधिकार भी सुनिश्चित करती थी.
कई उपनिवेशों में महिलाएं बेबस हो गईं और अपनी आर्थिक स्वतंत्रता खो बैठीं. औपनिवेशिक प्रणालियां अक्सर उनके श्रम का शोषण करती थीं और उन्हें बिना पैसे के घरेलू कामों में धकेल देती थीं. समाज में महिला और पुरुष के लिए अलग भूमिका तय करने में इस प्रवृत्ति ने बड़ी भूमिका निभाई. औपनिवेशिक शासनों और आर्थिक ढांचों में पुरुषों को ऊपर रखने का यह एक बड़ा कारण था.
मैसाचुसेट्स एमहर्स्ट विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर जयती घोष कहती हैं, "दरअसल हो सकता है कि उपनिवेशवाद के प्रभाव को कम आंका गया है, इस रिपोर्ट की खास बात यह है कि यह एक बड़ी हकीकत को दिखा रही है: कैसे यूरोपीय विस्तारवादी पूंजीवाद वंचित समुदायों, खासकर महिलाओं, के शोषण के जोर पर चलता रहा.”
आर्थिक गतिविधियों से महिलाओं को बाहर करने का नतीजा
औपनिवेशिक सोच ने लिंग के आधार पर कामों का ऐसा बंटवारा किया जो आज भी चला आ रहा है. कमाई में हिस्सेदारी, शिक्षा और राजनीति में भागीदारी इन सब में इसे साफ तौर पर देखा जा सकता है. समृद्ध देशों में काम करने वाली आप्रवासी महिलाओं का वेतन पुरुषों के मुकाबले 21 फीसदी तक कम है. दूसरी तरफ, भारत में महिला कामगारों की श्रम बाजार में हिस्सेदारी महज 37 प्रतिशत है. दुनिया के स्तर पर यह हिस्सेदारी 50 फीसदी से ज्यादा है.
यामिनी अय्यर अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी में सीनियर विजिटिंग फेलो हैं. उनका कहना है, "आय वृद्धि और अर्थव्यवस्था में महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर के बीच सीधा संबंध है. इसलिए, भारत के लिए महिला श्रम शक्ति की कम भागीदारी दर एक बड़ी चुनौती है. हमने शिक्षा पूरी करने वाली महिलाओं की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि देखी है, लेकिन उनकी श्रम शक्ति भागीदारी में उतनी वृद्धि नहीं हुई है. जाहिर है, हम महिलाओं के लिए ऐसी पर्याप्त नौकरियां नहीं बना सके जिनमें देखभाल, सुरक्षा आदि जैसी संरचनात्मक समस्याओं का समाधान किया गया हो.”
घर परिवार की देखभाल का कोई मोल नहीं
इस रिसर्च रिपोर्ट ने यह भी दिखाया है कि महिलाओं के घर में किए कामों को कितना महत्वहीन समझा जाता है. पूरी दुनिया में महिलाएं अकेले दम पर घरेलू काम काज का बोझ उठाती हैं. इस तरह वे अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा होती हैं लेकिन उन्हें इसके बदले कोई पैसा नहीं मिलता. बल्कि इस काम की वजह से ही अकसर उनकी जरूरतों और अधिकारों की अवहेलना भी होती है. वे गरीबी और दूसरे आर्थिक सामाजिक खतरों के लिए सुलभ हो जाती है.
दुनिया भर में महिलाएं हर दिन औसतन 12.5 अरब घंटे मुफ्त काम करती हैं. महिलाओं के इस काम का दुनिया में आर्थिक योगदान 10.8 हजार अरब डॉलर है. यह रकम दुनिया भर की तकनीकी उद्योग में किए गए कामों की कीमत का करीब तीन गुना है. ऑक्सफैम ने महिलाओं के इस योगदान को पहले ही "छिपी हुई सब्सिडी" कहा है. उनका कहना है कि यह काम नहीं हुआ तो समाज की व्यवस्था "पूरी तरह बिखर" जाएगी.
खासतौर से दक्षिण एशिया और अफ्रीका में महिलाएं ना केवल लिंग और जातीय भेदभाव का सामना करती हैं बल्कि घर की मुफ्त देखभाल का बोझ भी उठाती हैं. परिवारों को बनाए रखने के लिए यह श्रम बहुत जरूरी है लेकिन इसे पैसों के लिहाज से नहीं आंका जाता.
जयती घोष का कहना है, "भारत के ज्यादातर राज्यों में देखभाल करने वालों और स्वास्थ्यकर्मियों को सरकार की ओर से तय न्यूनतम वेतन भी नहीं मिलता है. इसलिए उन्हें ‘कर्मचारी' भी नहीं कहा जाता, उन्हें ‘वॉलंटियर' कहा जाता है. यह एक ऐसी व्यवस्था है जो महिलाओं के अवैतनिक और स्वासथ्यकर्मियों के कम वेतन वाले काम पर निर्भर है और इसलिए इसे बनाए रखने की कोशिश होती है. महिलाओं को औपचारिक रोजगार से वंचित करके, वह उन्हें संपत्ति और कर्ज तक पहुंचने का मौका ही नहीं देती. इसी वजह से उनकी आर्थिक स्थिति जस की तस रहती है."
मान्यता, भागीदारी, बंटवारा और इनाम
औपनिवेशिक दौर समय की छाप आज भी समाज की संरचना पर दिखती है. इससे पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ावा मिला है, जो महिलाओं की निर्णय लेने की क्षमता और उनके आर्थिक और राजनीतिक भागीदारी को बाधित करती है. ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2024 के अनुसार, दक्षिण एशिया, मध्य पूर्व और उत्तर अफ्रीका दुनिया में सबसे ज्यादा लैंगिक असमानता वाले इलाके हैं. भारत 146 देशों की सूची में 129वें स्थान पर है और बांग्लादेश जैसे दक्षिण एशियाई देशों के मुकाबले भी पीछे है. दूसरी ओर आइसलैंड पहले स्थान पर है और दूसरे यूरोपीय देश भी काफी अच्छी स्थिति में हैं.
महिलाओं को सामाजिक-आर्थिक नुकसान में डालने वाली संरचनाओं में समानता लाने के लिए सबको मिल कर प्रयास करना होगा. इन लैंगिक असमानताओं को सुलझाने के लिए हम औपनिवेशिक धरोहरों पर गंभीर नजरिया अपनाएं, और बड़े स्तर पर अवैतनिक और कम वेतन वाले काम को मान्यता दें, उसे घटाएं, जिम्मेदारियों को बांटे और उसके लिए इनाम दें
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