कुछ दशकों में देश की मीडिया को सिर्फ मुनाफे से मतलब रहा है और सभी ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में अपनी भूमिका त्याग दी है। ऐसी स्थिति में सराहना तो दूर की बात है, उल्टे अच्छी रिपोर्टिंग को जानबूझ कर सेंसर कर दिया जाता है. व्यावसायिकता के लिबास को बनाए रखते हुए संपादक विभिन्न हितों को संतुलित करने की कोशिश कर रहे दलालों का काम करते हैं और मालिकों ने राजनीतिक और व्यावसायिक लाभ के लिए अपने ब्रांडों को प्यादे के रूप में इस्तेमाल किया है. सबसे तेज प्रमोशन और सबसे मोटा वेतन या पैकेज ज्यादातर दलालों के लिए आरक्षित हैं, जो पत्रकारों के भेष में सौदे फिक्स करते हैं और मीडियापतियों की परेशानियों को सुलझाने का काम करते हैं।
आज के दौर में एक रिपोर्टर का काम पन्नों को भरने के लिए पर्याप्त सामग्री जुटाना है। हर कदम पर खुद को सेंसर करने का पाठ सीखे ये रिपोर्टर ऐसी कहानी गढ़ने की हिम्मत भी नहीं करते जो उसके सुरक्षित अस्तित्व को खतरे में डाल दे। ऐसे में अधिकांश रिपोर्टर केवल सोशल मिडिया में आने वाली खबरों पर रिपोर्ट बनाते हैं. रिपोर्टर का काम इन कॉपियों को सुधार कर अपना नाम डालना है ऐसे लोगो से बदले में संपादक खुश होते हैं कि एडिट करने के लिए कोई मुश्किल कॉपी नहीं है और न किसी बड़े कारपोरेट का गुस्सा झेलना होगा, न सरकारी धमकी का सामना करना पड़ेगा।
अधिकांश अखबारों और चेनलो का ब्यूरो ऐसे पत्रकारों से भरा है जो पत्रकारिता के बजाय पहुंच को अपना लक्ष्य मानते हैं। यहां तक कि कुछ साथी पत्रकार, जो 2014 के चुनाव से पहले अच्छी रिपोर्टों पर हमें बधाई देते थे और खोजी पत्रकारिता के बारे में जिनकी बातें काफी अच्छी लगती थीं, वे भी अब सरकार के सामने झुक रहे हैं ताकि उनकी नौकरी बनी रहे और अब वे बस दरबारी के साथ साथ प्रचारक बन कर रह गए हैं और चाय की चुस्किया ले रहे है देश में चल रहे घटनाक्रम पर सवाल उठाने वाले कुछ पत्रकारों ने नौकरी क्या गंवाई बड़े मिडिया संस्थान से विरोध के स्वर गायब हो गए।
विसल -ब्लोअर हमेशा से अच्छी रिपोर्टिंग में एक महत्वपूर्ण घटक रहा है. लेकिन देश में ये काम आपको जेल पहुंचा सकता है या आपकी हत्या हो सकती है और आपको विचारधारा के नशे में डूबी सोशल-मीडिया की भक्त आर्मी के हमले का सामना करना पड़ सकता है. चतुर नौकरशाही सलाह के साथ बीते सालों में सरकारों ने विसल-ब्लोअर को जो भी सुरक्षा उपलब्ध थी उसका गला घोंट दिया है. सरकार में उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार की जांच करने के लिए बनाई गई संस्था और आयोग के ऑफिस की विश्वसनीयता खुद संदेह के घेरे में है। भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम को संशोधित किया गया और "आपराधिक दुर्व्यवहार" की परिभाषा को कमजोर बना दिया गया. वहीं, सरकारी अधिकारियों पर मुकदमा चलाने के लिए नए प्रतिबंध लगाए गए. सरकार सूचना के अधिकार के कानून को लेकर शत्रुतापूर्ण रही है, सूचना आयुक्तों की नियुक्ति करने से इनकार कर रही है और यहां तक की कानून को कमजोर करने के तरीके तलाश रही है.
हाल के वर्षों में रिपोर्टिंग शुरू करने वालों ने भी रिपोर्टिंग के इस पक्ष को ही जाना है- नौकरशाह जो नहीं मिलेंगे, स्रोत जो अनुपलब्ध हैं और एकतरफा जानकारी का प्रवाह. पत्रकारों की एक पीढ़ी को यह जानने का मौका भी नहीं मिला कि सरकार और कारपोरेट रिपोर्टिंग कैसे काम करती है. चुपचाप सब सहन कर रहे पीड़ितों की सूची अंतहीन है- इसमें फ्रीलांसर हैं जिनके पास मामलों से लड़ने के लिए कानूनी मदद नहीं है, स्थानीय माफिया से लोहा लेने वाले छोटे-छोटे पत्रकार हैं जिनकी हत्या हो जाती है या फिर उन्हें फसाकर जेल भेज दिया जाता है और थानों में नग्गा कर फोटो वायरल की जाती है ताकि वो सर्मिंदगी से ही मर जाये इतना ही नहीं राजधानी में बैठे वरिष्ठ पत्रकार जिन्होंने मासिक वेतन के लिए अपने आदर्शों का समर्पण कर दिया है।
पत्रकारिता के नाम पर बनाए जा रहे चमचागिरी और प्रॉपगैंड के कॉकटेल से पत्रकारों की नई पीढ़ी में काफी गुस्सा है. उन्हें पत्रकारिता में गहरे तक समाई ईमानदारी और असहमति की समझ के बिना कलम पकड़ा दी गयी है जब इन पत्रकारों का गुस्सा अपने चरम पर पहुंच जाएगा तो एक नई पत्रकारिता का जन्म होगा।
Comment Now