Sunday ,19th May 2024

सरकार की आशा का जीवन अब भी बेहाल ?

आशा अपने नाम के अनुरूप देश और प्रदेश के गांवों में स्वास्थ्य सेवा के लिये लोगों की उम्मीद बन गई हैं। लेकिन वे मानदेय, काम की गारंटी और खुद के स्वास्थ्य के मामले में बेहाल हैं। कंधे पर झोला और हाथ में रजिस्टर लिए आशा कार्यकर्ता आज देश और प्रदेश के गांव गांव में नजर आती हैं. एक्रेडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट यानी आशा गांवों में स्वास्थ्य सेवा की सबसे छोटी ईकाई हैं। स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी उपलब्ध कराने से लेकर सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं का लाभ लोगों तक पहुंचाने का काम आशा ही करतीं हैं।

कोरोना काल में इनकी सेवाओं के लिए इन्हें सम्मान तो मिला लेकिन सुविधायें नहीं हाल ही में डब्ल्यूएचओ ने भी इनके काम की बहुत सराहना करते हुए इस परियोजना को सम्मानित किया . हालांकि सच्चाई यह है कि बहुत मामूली और अनियमित मानदेय पर काम करने वाली इन औरतों के पास कई बार आने जाने के किराये के लिए भी पैसे नहीं होते. ऊपर से काम का दबाव और कई बार तो लोगों की गालियां भी सुननी पड़ती हैं।  

देश में एक हजार की आबादी पर एक आशा कार्यकर्ता की तैनाती की जाती है। आशा मुख्य रूप से महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर काम करती हैं. आशा कार्यकर्ता आबादी तथा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, स्वास्थ्य उपकेंद्र या अस्पतालों के एक पुल का काम करतीं हैं.एनएचएम की गाइडलाइन के अनुसार एक आशा कार्यकर्ता को कम से कम आठवीं कक्षा तक शिक्षित, बोलचाल में निपुण व नेतृत्व क्षमता वाली होना चाहिए.

आशा कार्यकर्ता का काम घर-घर जाकर लोगों को सरकार की स्वास्थ्य संबंधी योजनाओं, साफ-सफाई के तरीके व पोषण की जानकारी देना है. हम गर्भवती स्त्रियों और नवजात के स्वास्थ्य को लेकर बड़ी जिम्मेदारी निभाते हैं. सुरक्षित प्रसव के लिए हम उन्हें प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) या सरकारी अस्पताल तक ले जाते हैं."
आशा कार्यकर्ता बच्चे के जन्म के बाद तीसरे या फिर सातवें दिन भी उनके घर जाती हैं और जरूरत के अनुरूप सलाह देते हैं. अपने कार्यक्षेत्र में ये जन्म-मरण की सूचना भी पीएचसी को देते हैं.

आशा कार्यकर्ता को ‘‘काम के अनुसार पैसा नहीं मिलता है.  आज एक मजदूर को भी 400 रुपया रोजाना मिलता है. इन्हे तो उस हिसाब से कुछ भी नहीं मिलता है और जो मिलता भी है वह भी दो-तीन महीने में सरकार को इन आशाओ से आशा तो बड़ी है लेकिन  का पैसा दमड़ी बराबर सब कुछ मिलाकर यूं समझ लीजिए प्रतिमाह रुपये मिलते हैं. इसके अंदर मानदेय का एक हजार भी तब मिलेगा जब  गृह भ्रमण करना (एचबीएनसी), ग्राम स्वास्थ्य दिवस-आशा दिवस में भाग लेना, गर्भवती महिला की जांच करवाना, प्रसव कराना, परिवार नियोजन करवाना, टीकाकरण करवाने का काम करेंगे. पैसे की बहुत परेशानी है. कभी-कभी तो पीएचसी जाने के लिए किराये के भी पैसे नहीं होते.''

जितना काम आशा लोगों के जिम्मे है, उसके लिए 24 घंटा भी कम पड़ेगा. काम तो सरकार के लिए करते हैं, लेकिन इन्हे सरकारी कर्मचारी नहीं माना जाता है, वहीं आशा के पारिश्रमिक पर स्वास्थ्य विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना था कि यह एक बड़ा और पेचीदा मुद्दा है. इसका पैसा केंद्र से रिलीज होता है और उसके वितरण का काम राज्य देखता है. यह सच है कि आशा का काम लगातार बढ़ा है. इस पर ध्यान देने की जरूरत है. हाईकोर्ट ने भी कोरोना काल में इनके कार्यों की सराहना की है.
मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता यानी आशा की डगर बेहद मुश्किल है. यह भी सच है कि आशा कार्यकर्ता देश के स्वास्थ्य ढांचे की रीढ़ हैं. किसी भी अभियान को गांवों तक मूर्तरूप देने में उनकी खासी भूमिका है. अगर इनकी सेहत ठीक नहीं रही तो इसका असर सीधे देश की सेहत पर पड़ेगा.

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