Sunday ,19th May 2024

थप्पड़ से प्रशासन क्यों चला रहे हैं डीएम साहब?

भारत में अधिकारियों के हिंसक बर्ताव के मामले नए नहीं हैं. एक रिपोर्ट में दो सालों के अंदर घटे ऐसे आधा दर्जन मामलों की लिस्ट बनाई गई है. अधिकारियों के ऐसे बर्ताव के पीछे की असली वजहें क्या हैं, हमने यह जानने की कोशिश की. छत्तीसगढ़ में डीएम के एक युवक को थप्पड़ मारने का वीडियो सोशल मीडिया पर कई दिनों तक चर्चा में रहा. सूरजपुर जिले में तैनात अधिकारी रणवीर शर्मा ने एक युवक को थप्पड़ मारा था और उसका मोबाइल जमीन पर पटककर तोड़ दिया था. इतना ही नहीं जब युवक ने विरोध जताया तो डीएम ने पास ही मौजूद पुलिसवालों से युवक को पीटने के लिए भी कहा था. इस घटना का वीडियो वायरल होने के बाद रणवीर शर्मा का ट्रांसफर कर दिया गया था. यह मामला अभी शांत भी नहीं हुआ था, तभी उत्तर प्रदेश के लखनऊ में जिलाधिकारी अभिषेक प्रकाश और सिटी मजिस्ट्रेट शशि भूषण राय के बीच विवाद और अपशब्द कहे जाने का मामला सामने आ गया. इस दौरान मौके पर मौजूद कर्मचारियों ने यह भी कहा कि मामला मारपीट की हद तक पहुंच गया था. यह घटनाएं दिखाती हैं कि अधिकारी सिर्फ आम जनता पर ही नहीं मातहतों और सहयोगियों तक पर हिंसक हो जाते हैं. महामारी का दबाव हिंसा की वजह? एक मीडिया रिपोर्ट में दो सालों के अंदर ऐसे आधा दर्जन मामलों की लिस्ट बनाई गई है. लेकिन अधिकारियों के ऐसे बर्ताव के पीछे की असली वजहें क्या हैं. टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में मनोविज्ञान की पढ़ाई कर चुके और सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले वतन सिंह कहते हैं, "कोरोना की गंभीर दूसरी लहर के बीच प्रशासन में ऊपर से नीचे तक निराशा की स्थिति है. अधिकारियों पर भी परिस्थितियां नियंत्रित करने का काफी दबाव है. गुस्से की हालिया घटनाओं के पीछे अधिकारियों की निराशा भी एक तात्कालिक वजह हो सकती है." हालांकि मनोवैज्ञानिक डॉ समीर पारिख नहीं मानते कि हिंसक बर्ताव के पीछे की वजह महामारी का दबाव है. डीएसपी अवधेश कुमार भी दबाव की बात से सहमत नहीं हैं. वह कहते हैं, "सामूहिक तौर पर प्रशासन को कठघरे में नहीं खड़ा कर सकते. यह हर अधिकारी विशेष से जुड़ी हुई बात है. यह बहुत मायने रखता है कि सेवा में आने के पीछे किसी अधिकारी का क्या उद्देश्य रहा है. अगर कोई सामाजिक बदलाव और देशप्रेम से प्रभावित होकर प्रशासन का अंग बना है, तो आम लोगों के प्रति उसका व्यवहार अलग होगा और अगर कोई प्रशासन के रुतबे और ताकत से प्रभावित होकर इसका अंग बना है तो उसका व्यवहार अलग होगा." वह कहते हैं कि आपने शुरुआती जीवन में जो कुछ सीखा है, उसी से आपका व्यवहार तय होता है. "दरअसल इंसान अपने जीवन के 20-25 सालों में जिन मूल्यों को सीखता है, उसे कुछ महीने या साल भर की ट्रेनिंग से बदला नहीं जा सकता. इसलिए यह बहुत मायने रखता है कि अधिकारी बनने से पहले कोई इंसान कैसा रहा है?' डॉ भी कहते हैं, "हमें पूरे प्रशासन को एक नजरिए से नहीं देखना चाहिए. अगर किसी शिक्षक ने बच्चे को मारा तो हम यह नहीं कह सकते कि सभी शिक्षक बच्चों को मारते हैं. यह किसी समूह से जुड़ा मामला नहीं है. अलग-अलग अधिकारियों का अलग स्वभाव होता है और मैं दावे से कह सकता हूं कि अगर हम संवेदनशील और असंवेदनशील अधिकारियों के आंकड़े जुटाएं तो संवेदनशील अधिकारियों की संख्या कहीं ज्यादा होगी." कई अधिकारियों में पूर्वाग्रही सोच मौजूद उत्तर प्रदेश में तैनात नायब तहसीलदार अरविंद कुमार कहते हैं, "प्रशासन को एक औपचारिक कड़ाई की जरूरत होती है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अधिकारी पद का फायदा उठाते हुए हिंसा पर उतर आए. मसलन मैं राजस्व विभाग में अधिकारी हूं. अक्सर हमारे सामने जमीन या प्रॉपर्टी से जुड़े मामले आते हैं. ये ऐसे मामले होते हैं, जिनमें जमीन के छोटे से हिस्से के लिए लोग जान लेने के लिए उतारू हो जाते हैं. ऐसे मामलों में समाधान करने या अदालत के निर्णय को लागू कराने में हमें सख्ती दिखानी पड़ती है. लेकिन ऐसे मामलों में भी कभी मारपीट की नौबत नहीं आती." समीर पारिख भी सख्ती की जरूरत से सहमत हैं और कहते हैं, "कड़क होने और हिंसक होने में बहुत अंतर है." हालांकि अरविंद कई अधिकारियों पूर्वाग्रही होने की बात कहते हैं. दलित समुदाय से आने वाले अरविंद यह भी कहते हैं, "इस बात से इंकार नहीं कि प्रशासन में अब भी जातीय भेदभाव या महिलाओं के प्रति भेदभाव दिख जाता है. लेकिन यह भी अधिकारी विशेष के मामले में ही है. अब तक मुझे यह नही झेलना पड़ा है और मुझे अपने जिले के तेज-तर्रार अफसर के तौर पर देखा जाता है. लेकिन ऐसा हो सकता है कि एसी/एसटी जाति समूह से आने वाले अधिकारी को छोटी सी गलती होते ही पूर्वाग्रही आक्षेप झेलने पड़ें. यह भी एक सच्चाई है कि कई बार महिलाओं को प्रशासन में कम आंका जाता है." बार-बार दी जाए संवेदनशील बनाने की ट्रेनिंग डीएसपी अवधेश अधिकारियों में हिंसक प्रवृत्ति को नियंत्रित करने का उपाय भी बताते हैं, "हिंसा का इलाज यही हो सकता है कि अधिकारी बनने के दौरान जो कुछ महीनों की ट्रेनिंग दी जाती है, वह बाद के दौर में भी जारी रहे. अधिकारियों को समूह विशेष, जैसे दलित और महिलाओं के प्रति संवेदनशील व्यवहार के लिए बार-बार तैयार किया जाए. इसके लिए हर 6 महीने या साल भर पर ट्रेनिंग होनी चाहिए." अवधेश इसके लिए एक रोचक उदाहरण देते हैं, "सैनिकों का निशाना अच्छा क्यों होता है? क्योंकि उन्हें हर महीने निशानेबाजी की ट्रेनिंग दी जाती है. जबकि आपने अक्सर पुलिसवालों के खराब निशाने की बातें सुनी होंगी, ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें बार-बार ट्रेनिंग ही नहीं दी जाती. यही बात अधिकारियों की संवेदनशीलता के मामले में भी लागू होती है." भारत सरकार भी अधिकारियों में ऐसे सुधारों की जरूरत को महसूस कर रही है. यही वजह है कि सरकारी अधिकारियों के काम करने की शैली में सुधार के लिए केंद्रीय कैबिनेट ने पिछले हफ्ते 'कर्मयोगी योजना' को मंजूरी दी है. इस मिशन के तहत सिविल सेवा के अधिकारियों को क्षमता बढ़ाने के लिए खास ट्रेनिंग दी जाएगी. केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के मुताबिक मिशन कर्मयोगी का लक्ष्य भविष्य के लिए भारतीय सिविल सेवकों को ज्यादा रचनात्मक, कल्पनाशील, एक्टिव, प्रोफेशनल, प्रगतिशील, ट्रांसपेरेंट और टेक्नोलॉजी का जानकार बनाना है.

Comments 0

Comment Now


Total Hits : 278013