Sunday ,19th May 2024

भारतीय नागरिक के नाते मेरा यह धर्म है कि में सरकारकी नाकामयाबियों पर प्रश्न करूं.

कश्मीर को लेकर अरुंधति के विचारों से ज्यादा महत्वपूर्ण विचार हैं मोदी सरकार के. अरुंधति और अरुंधति जैसे विचार रखने वालों के पास सिर्फ़ और सिर्फ़ विचार हैं, सत्ता का कण भी नहीं. इस समय केंद्र में जो सरकार है और उस सरकार और उस दल का जो विचार है, वह राष्ट्रवाद, भारतीयतावाद और उससे भी आगे है. हम भाजपा और आरएसएस की खिल्ली उड़ाने को कह सकते हैं कि ये स्वयंभू राष्ट्रवादी हैं, लेकिन मुझे इनके राष्ट्रप्रेम पर न तो आपत्ति है और न इनकी विचारधारा पर.
जैसे अरुंधति रॉय को अपने विचार रखने की स्वतंत्रता है, वैसी स्वतंत्रता आरएसएस या उसके लोगों को न हो यह मानसिकता भी एक फासीवाद है. मोदी अगर प्रधानमंत्री हैं या भाजपा अगर सत्ता में है तो यह भारतीय लोकतंत्र से है, न कि ये लोग किसी की कनपटी पर बंदूक रखकर सत्ता में आए हैं. लेकिन एक स्वतंत्र मानसिकता के भारतीय नागरिक के नाते मेरा यह धर्म है कि मैं अपनी सरकार की विफलताओं और सत्तारूढ़ दल की नाकामयाबियों पर प्रश्न करूं. जो लोग ऐसा नहीं कर रहे हैं या सत्तारूढ़ दल की तारीफ़ों में लहालोट हो रहे हैं, वे विचारधारा और दलगत प्रेम का धर्म तो निभा रहे हैं, लेकिन वे राष्ट्रधर्म नहीं निभा रहे हैं.
 कांग्रेस के समय आप सरकार की जिस नाकामी को बर्दाश्त नहीं कर सकते, उसे आप अपनी प्रिय सरकार के रहते कैसे बर्दाश्त कर रहे हैं तो यह आपका अपने आपको और अपने देश को धोखा देना है. मेरा तो मानना है कि ऐसी विफलताओं पर तो आपको और गुस्सा होना चाहिए. लेकिन आप ऐसा नहीं कर रहे हैं. आप सिर्फ़ उस अरुंधति रॉय पर गुस्सा हो रहे हैं, जो कुछ भी नहीं है और जिसकी कोई पार्टी भी नहीं है. जिसकी कोई ताकत भी नहीं है. जिसके विचार का कोई संगी और साथी भी नहीं है. वह सिर्फ़ लिखती है या कभी-कभार ही बोलती है कि आपको लगता है, उसने आपके हवाई किले को हिलाकर रख दिया है. दुनिया के साहित्यिक मानदंडों को मानने वाले वैश्विक साहित्यकानरों की नजर में न तो अरुंधति कोई बहुत क्रांतिकारी चीज़ हैं और न ही तसलीमा नसरीन. लेकिन ये दोनों बहुत बड़ी ताकत बन गई हैं, क्योंकि इन दोनों के लिखे और कहे एक-एक शब्द से इनके विरोधी थर-थर कांपते हैं. इन दोनों को ताकतवर बनाने में जितना हाथ इनके मूर्ख विरोधियों का है, उतना इनकी अपनी प्रतिभा का नहीं है. नरेंद्र मोदी तीसरे ऐसे सौभाग्यवान व्यक्ति हैं, जो औसत दर्जे के राजनीतिज्ञ होने के बावजूद अपने मूर्ख विरोधियों के अभियानों की लहर पर सवार होकर प्रधानमंत्री पद पहुंच गए हैं.

खैर, जैसे आप किसी को अपने घर की रक्षा काम सौंपें और थोड़ी-बहुत चूकें होने पर आप चिल्लाएं तो उस समय आपकी निश्चित ही पिटाई होनी चाहिए अगर आप स्वयं अपने घर की रक्षा कर रहे हों और आए दिन चूक हो रही हो या आपके परिवार का कोई सदस्य दुष्टों के हाथों मारा जा रहा हो. आपके पिता अगर किसी नौकर को कोई काम सौंपे और वह ठीक से पूरा नहीं कर पा रहा हो तो वे उसे या तो नौकरी से निकाल देंगे या फिर डांटेंगे. लेकिन अगर आपको वह काम सौंप दिया और आपने नहीं किया तो बच्चू आपको डांट नहीं, एक झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ेगा और आप पतलून भिगो देंगे. यह है घर के दायित्व का प्रेम. ऐसा करने से बेटे को भी याद रहेगा कि वह अपने पिता की निगाह में है, लेकिन अगर ऐसे घर रक्षक नाकाम पूत को पिता वाहवाहियां देता रहेगा तो महानुभावो आपके घर का बंटाधार तय है.
 अब सबसे बड़े वीर पुरुषों की सत्ता है और उनके सत्ता में रहते अगर भारतीय कश्मीर के पाकिस्तान कब्जे वाले हिस्से से अगर चाइना पाकिस्तान इकोनॉमिक कोरीडोर निकाल चुका है तो क्या अरुंधति रॉय के विचार जिम्मेदार हैं? क्या इसके लिए कांग्रेस जिम्मेदार है या देशद्रोही वामपंथी? आप कब तक मृतप्राय वामपंथियों को कोस-कोस कर अपने कमजोरियों और नाकामियों को छुपाते रहेंगे? आप कब तक ऐसा कायराना व्यवहार करेंगे? आप कब तक सच की आंख से भय खाएंगे? आप कब तक यथास्थितिवाद को ओढ़ेंगे?

चलिए, आपकी तरह इस देश का हर व्यक्ति राष्ट्रवादी ढंग से और ठीक वैसे ही जैसे आपकी प्रिय सरकार सोच रही है, उसी नजरिए से सोचें तो कश्मीर समस्या का हल तो निकालिए. नक्सलवाद का कुछ तो करिए. आप आए दिन मन की बात करते हैं. एक दिन नक्सलवादी इलाकों में और कश्मीर में इतने लंबे समय अपना वक्त बिताने वाले सैनिकों से समस्या का हल तो पूछिए. कभी समय मिले तो? क्योंकि जिस मैदानी सच को वे जानते हैं, वह सच आपके राजनीतिक दल और ब्यूरोक्रेट नहीं ही जानते. मत पूछिए कश्मीर के लाेगों से उनका दर्द. मत जाइए नक्सलवादियों के हाथों खेल रही जनता के पास. ये सब तो पृथकतावादी और देशद्रोही हो चुके. कम से कम अपने सैनिकों और अर्धसैनिक बलों के लाेगों से ही समस्याओं का हल पूछ लीजिए. लेकिन उन सबका तो खून पानी से भी सस्ता है.
वे कोई विचार देने या समस्याओं का हल कराने के लिए थोड़े हैं! और किसी से नहीं, यहां तक कि फारूक अहमद डार से भी नहीं, आप तो मेजर लितुल गोगोई से ही कश्मीर समस्या का हल पूछ लीजिए. वे ही आपको बता देंगे. लेकिन आप मेजर लितुल गोगोई से हल नहीं पूछना चाहेंगे और न उनकी बात पर ध्यान देंगे, क्योंकि आपको लितुल का डार को जीप के आगे बांधकर घुमाने में मजा आता है, समस्या हल करने का साहस दिखाने में आपकी नाभिकीय धुरी फट जाती है.
 क्यों भारतीय जवानों को आए दिन मरना पड़ रहा है? बताओ तो सही. आप कब तक इसके लिए पाकिस्तान और पृथकतावाद को कोसेंगे? जिन दिनों इंदिरा गांधी विदेशी हाथ बताया करती थी तो आपके पुराने नेता कितना हल्ला मचाया करते थे? उन दिनों के अपने नेताओं के भाषण और उनकी प्रतिक्रियाएं एक बार निकाल कर पढिए. आपको पाकिस्तान से अगर कश्मीर छीनना है तो छीन लेना चाहिए और भारत में मिला लेना चाहिए. लेकिन आप ऐसा नहीं कर रहे हैं. पहले तो आप ऐसा ही कहा करते थे. ऐसी ही नेक सलाहें सरकारों को दिया करते थे. लेकिन अगर आप इंतजार करना चाहते हैं तो कितना? 
दस बरस? 
पंद्रह बरस? 
बीस बरस? 
या कांग्रेस की तरह 70 साल?

या आप कांग्रेस की तरह कश्मीर में ऐसे हालात बनाएंगे कि वहां हमारे ही नागरिक भी मारे जाएं और हमारे ही जवान भी. कांग्रेस के यथास्थितिवाद को आपका दल भी जी रहा है और उसे उसमें सुकून है. आप कल्पना करें कि यही हालात अगर किसी और पार्टी के समय होते तो बीजेपी, आरएसएस और समस्त राष्ट्रवादी क्या कह रहे होते? अरुंधति जो कुछ नहीं है, वह तो सब कुछ बनाकर बहस के केंद्र में लाई जा रही है और जो सब कुछ है और जिसकी जिम्मेदारी है, जवाबदेही है, वह सरकार तारीफों का समुद्र बटोर रही है. अगर यह मार्ग विनाश का नहीं है तो फिर बताइए कौन सा है? चीन की सरहद पर हमारा एक विमान मार गिराया गया है. हम बोल ही नहीं पा रहे. अभी तक मैं परेश रावल के ट्वीट का इतजार कर रहा हूं कि वह कहे कि चलिए नरेंद्र मोदी एक टैंक लेकर दिल्ली से निकलें और चीन पहुंचकर शी जिन पिंग को उसके आगे बांधकर ले आते हैं.
 दरअसल हम लोगों को हमारी सरकारें, चाहे कांग्रेस की हों या भाजपा की या किसी भी दल की, वे इस देश के नागरिक को सच बताती ही नहीं हैं.
सच ये है कि अगर भारत किसी भी तरह से पाकिस्तान पर हमला करेगा तो चीन उधर से हमें हमले की धमकी दे ही देगा, क्योंकि युद्ध में उनका सीपीईसी, जिस पर तीन लाख करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च हुआ है, वह खतरे में पड़ ही जाएगा. चीन भला ऐसा क्यों होने देगा?

इसलिए मेरे प्यारे राष्ट्रवादी मित्रो, अरुंधति रॉय, जिसके हिस्से में विचार और शब्द के अलावा कुछ नहीं है, उसे छोड़िए और जिसकी भारत देश की अखंडता-एकता और बहबूदी की जिम्मेदारी है, जिसकी जवाबदेही है कि वह हर नागरिक की रक्षा करे, उससे प्रश्न पूछने की हिम्मत जुटाइए. ऐसा नहीं करेंगे तो इस देश को नुकसान होगा और यह कौम फिर कमजोर और कमतर साबित होगी. यह नहीं होना चाहिए. मेरा खयाल है, आपका भी मंतव्य यही है. अरुंधति के कुछ प्रश्न कटु हैं, वे बहुत वाजिब भी हैं, लेकिन अरुंधति पूरी तरह सही ही है और उसका हर कदम सही ही होगा, यह संभव नहीं. यह ऐसा दौर है, जब आपके नागरिक भी मारे जा रहे हैं और जवान भी, किसान भी. यह ऐसा समय भी है, जब भारत दुनिया का बेहतरीन और सबसे ताकतवर देश बन सकता है, सबसे वैभवशाली बनने का उसके लिए मौका है, लेकिन नाकारा सत्ताएं अक्षम ब्यूरोक्रैसी के हाथों यथास्थितिवाद को ढोने को अभिशप्त हैं.

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