Sunday ,19th May 2024

इनके चूल्हे पर वोटों की आंच जलती रहे तो ये राम की मर्यादा को भूल सकते हैं

लोकतांत्रिक शासन की इस राजसी संस्कृति की क्षय हो. इस लोकतांत्रिक संस्कृति से लाख गुना बेहतर राजाशाही, बादशाही और किंगडम की वह संस्कृति थी, जिसमें शासन का शीर्ष व्यक्ति सेना के साथ सबसे आगे खड़े होकर हरावल दस्ते में सीना तानकर खड़ा होता था. ऐसे शासक न केवल स्वयं को बचाकर लाते थे, अपने हर सैनिक के प्राण भी उनके लिए अमूल्य थे. सैनिक मरते थे तो शासक भी मरता था और शासक बचता था तो सैनिक भी बचते थे. कई बार शासक वीर गति को प्राप्त होता था और सैनिक बच जाते थे. शासक और सैनिक के बीच जीत और हार का ही नहीं, प्राणों से जुड़ा रिश्ता भी हुआ करता था. वह शासक जानता था कि मेरा फ़ौजी मरेगा तो मैं भी मरूंगा और फ़ौजी समझता था कि बादशाह मरेगा तो मेरा मरना तय है. लेकिन अब फ़ौजी ही मरता है. सैनिक ही मारा जाता है. न इधर के बादशाह का बाल बांका होता है और न उधर के शासक का. शासक तो शासक हैं. इधर वाला शपथ लेगा तो उसे ख़ास मेहमान बनाकर बुलाएगा और उधर वाले का मन आया तो वह आसमान से उड़ते राजा को कहेगा, आ भाई, दो घूंट छक ले. मेरे बेटे का ब्याह है. और वह राजा सारी दुश्मनियां भुलाकर अपने जहाज को तत्काल तथाकथित दुश्मन के आंगन में उतारेगा और उतरते ही उसे बांहों में भर लेगा.
 

आज के बादशाह को अपने सैनिक का ख़ून अपना ख़ून नहीं लगता. वह उसे पराया ही लगता है. गुरु गोबिंदसिंह के पास बहुत छोटी सेना थी. उनके लिए एक-एक सैनिक बहुत कीमती थी. तो उन्होंने थियोरी निकाली : सवा लाख से एक लड़ाऊं. और हमारे लोकतांत्रिक शासक ऐसे कमज़र्फ़ हैं कि वे एक से सवा लाख को लड़ा रहे हैं.
बादशाहों और राजाओं के ज़माने में किसी सैनिक के रक्त की एक बूंद गिरती तो उन्हें लगता था कि किसी का रक्त गिरा है. जो महाराणा प्रताप और शिवाजी को लगता, ठीक वैसा ही अक़बर और औरंग़ज़ेब को लगता. वे सैनिकों के कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते थे. वे भाई का खून बहा सकते थे, पिता को जेल में डाल सकते थे, अपने भतीजे, भांजे या भाई की आंख में लौह तप्त सलाखें डाल सकते थे, क्रूरतम हो सकते थे, लेकिन अपने सैनिक को मरा हुआ नहीं देख सकते थे. सैनिक की सुरक्षा सबसे बड़ी सुरक्षा थी उनके लिए. वे युद्ध और योद्धा का धर्म निभाना जानते थे. वे पिता के शत्रु हो सकते थे, लेकिन अपने सैनिक की जीत उनकी जीत और अपने सैनिक की हार में वे अपनी हार देखते थे.
अगर किसी दुश्मन ने सैनिक की उंगली काटी तो शासक यह मानता था कि दुश्मन ने उसके हाथ को काटने की कोशिश की है. यह राजाशाही थी. यह किंगडम थी और यह बादशाहत हुआ करती थी. यह शिवाजी का धर्म था. यह महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान की शासन शैली थी. यह सिकंदर और नेपोलियन की राह थी. उस पुराकालीन और आज के समय में लगभग अप्रासंगिक हो चुकी शासन संस्कृति के मुग़ल बादशाह रहे हों या महाराणा प्रताप, पृथिवीराज चौहान, शिवाजी, महाराणा कुंभा या विक्रमादित्य या फिर भोज आदि. इन सबकी एक खूबी यह थी कि वे जनता के दुखदर्द को भी सुनते थे और ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्होंने लोगों की जमीन बिकवा दी हों, उनका अन्न छीन लिया हो या फ़सलें बर्बाद कर दी हों या लोग न्याय के लिए भटकते रहे हों, फिर भी उन्होंने अपने ही लोगों को ऐसे खेमे करके नहीं मरवाया. जिसमें एक पक्ष किसी भी तरह के रंग का आतकंवादी करार दे दिया गया हो और उसे नाराज़ जनता मानने होते हुए भी उन्हीं के बेटों को उनके खिलाफ़ सैनिक बनाकर लड़ने लगा दिया गया हो.
लेकिन कमीनी हिटलरशाही अपना ख़ून बहाना पसंद नहीं करती. वह मानती है कि राजा का खून पवित्र खून होता है. फिर वह 1947 के तत्काल बाद का हो या 2017 का शासक.
और ऐसे शासकों के लिए सैनिक का रक्त रक्तू नहीं, पानी से भी गया गुजरा होता है. पानी की एक बॉटल भी ऐसे शासकों को वीरगति प्राप्त सैनिक के खून से सस्ती लगती है. और आज तो हालात ये हो गए हैं कि हमारे शासकों ने ऐसी संस्कृति बना दी है कि वे पानी तो बचाने की बात करते हैं, लेकिन सैनिकों का रक्त उनके लिए नितांत मूल्यहीन है. इतना कि चाहे जितना बहाओ. बस, पानी बचाओ. पानी रहेगा तो जीवन रहेगा. रक्त का क्या है, हमारे पास इतने सैनिक हैं, बहाते जाओ. आप अपने दिलों और दिमागों के ताले मत खोलना. आप मत समस्याओं का समाधान निकालना. आपको निकालना भी क्यों चाहिए? क्योंकि कौनसा आपका बेटा मर रहा है.कौनसा आपके पोते का रक्त जा रहा है. आपको तो अपने लाल प्यारे हैं और वे ऊंची नौकरियां करेंगे, करोड़ों के बिजनेस करेंगे, साधु भी हो गए तो या परम-वैभवशाली मठ बना लेंगे, दस-बीस हजार करोड़ की कोई पतंजलि कंपनी खोल लेंगे. इन सब जगहों पर प्रधानमंत्री शीश नवाएंगे. आप पूजनीय कहाएंगे. और सैनिक कौन? अरे हमारे घर का जवान. किसान का लाल. भारत का सपूत. इस धरती का बेटा. किसी गांव के भाेले-भाले सहज भारतीय परिवार का गौरवशाली भाल. बेटे और लाल तो तुम्हारे भी हैं इस महान् लोकतंत्र के महान् शासको, लेकिन क्या तुम भेजते हो कभी सरहद पर? इस महान् और देशभक्त शासको, मैं तुम्हें 1947 से देख रहा हूं. अरे, भेजा है कभी आपने अपने बेटे को कि जाओ तुम अपनी दाईं बाह कटा आओ. जाओ तुम अपनी गर्दन में एक खंजर झेल आओ. जाओ, अपनी तर्जनी पर एक ब्लेड न सही, हिन्दूमलकोट या जैसलमेर की तपती धरती पर कुछ घंटे रेत पर फिराकर ही देख लो. कभी कुछ घंटे कराकोरम या कश्मीर के शीर्ष पर उस वेशभूषा में कुछ घंटे बिताकर देखो, जहां हमारे सैनिक आपाद मस्तक अपने शौर्य को प्रतिमा की तरह 1947 से स्थापित किए हुए हैं.

नेता ही नहीं, नेताओं के मानसिक गुलामों को भी देखिए, जिनके लिए पैसा ही सब कुछ है और पैसे के लिए ही अपने देश के भीतर मौत का मंजर कायम करने को उत्कंठित होकर टीवी चैनलों से पूरे देश को लड़ ही मरो, कट ही मरो का संदेश देने में सबसे आगे हैं. अरे कभी सोचा है, नामुरादो कि एक सैनिक मरता है तो उसके घर में कैसा मंजर होता है. शासन जैसा लोककल्याण का महान् मार्ग है, लेकिन वह कार्पोरेट के दासों से अटा पड़ा है. छलिए ही छलिए.
अच्छे हर जगह हैं. हर दल में हैं और ज़हर से आप्लावित सोने के घड़े लेकर चलने वाले भी हर जगह हैं. ऐेसे जाली नेताओं के गुलाम और मीडिया जैसे पवित्र पेशे में घुस आए मदारी और सुबुकदस्त सुर में सुर साधकर कागारोल करते हैं: अरे, शहीद की वीरांगना ने कहा है, मेरे घर दो और बच्चे हैं. मैं दोनों को भेज दूंगी. भले वीरांगना ने कहा हो कि एक सिर के बदले उसे पचास सिर चाहिए और नहीं तो उस कायर का ही सिर लाकर मेरी हथेली पर धर दो! लेकिन नहीं, वह सब आपका यह शौर्यशाली एंकर नहीं बोलेगा. रिपोर्टर ने बड़ी मेहनत करके भी भेजा होगा तो वह नहीं चलाएगा. और जो नहीं बोला होगा या जो शासकों ने कहा होगा कि ये बुलवाओ तो उसे वह ज़रूर चलवाना चाहेगा.
 

देश में शौर्य और शूरवीरता बांटने वाले इन एंकर महाशय से कोई पूछे : अरे, भाई, तू खुद क्यों नहीं सीमा पर चला जाता देश की रक्षा करने. वह जो तुझसे रिपोर्ट करवा रहा है, वह अपने बेटे को क्यों नहीं भेजता. वह स्वयं तो सपरिवार एसी में बैठेगा, शाम को किसी दूतावास में महंगी दारू पीने जाएगा और मौजमस्तियां करेगा, लेकिन किसान के बेटे का रक्त मांगेगा? अरे तुम सब राक्षस हो या शासक, मीडिया या देशभक्त. क्या हो तुम? देशभक्त हो तो सबसे पहले खुद जाओ सेना में. सेना में नहीं जा सकते, चुने नहीं जा सकते तो बन जाओ मरजीवड़े. बना लो आत्मघाती जत्थे और बम बांधकर जा गिरो दुश्मनों पर. अगर इतना ही देशप्रेम आप के भीतर ठांठें मार रहा है तो थोड़ा किसानों के बेटों का भी बोझ हलका करो. कुछ इस धरती का भी. किसान का खून भी खून है. पानी नहीं है. पराया है तो क्या हुआ. वह भी नस्ले आदम का खून है. पूर्व है तो क्या और पश्चिम का है तो क्या? वह शहर का है तो क्या और गांव का है तो क्या? वह टीवी एंकर जो कल एक चैनल पर चार लाख का पैकेज ले रहा था, ठीक उसी उम्र का युवा है, जिस उम्र के दो बहादुर सैनिकों ने अपने सिर कटाए हैं. लेकिन वह आज किसी और चैनल पर बैठा है, क्योंकि उसे दस लाख का पैकेज मिल गया है.
जिसने उसे सब कुछ सिखाया और इस लायक बनाया, उसे छोड़ दिया. यानी मैं तो हर साल सवा करोड़ का पैकेज लूंगा, आला नेताओं से दोस्ती रखूंगा, देश की राजधानी में रहूंगा, समस्त वैभवशाली सुविधाएं भोगूंगा और राजनेताओं और शासकों से कभी कोई ऐसा प्रश्न नहीं करूंगा, जो उन्हें परेशान करे. लेकिन मैं मानवता का रक्तार्चन करने के लिए और नस्ले-आदम का खून बहाने के लिए, ऋषियों-मुनियों की इस धरती पर रक्त प्रवाह कराने के लिए हर रोज दुश्मनियां भड़काऊंगा.
 

इस युवा एंकर का रक्तपिपासु हृदय यह नहीं देखता कि सरहद पर लड़ना कितना मुश्किल है. उसे नहीं मालूम की रूहे-तामीर कितने ज़ख़्म खाकर एक सैनिक पैदा करती है. अरे, एक बेटा मरेगा तो तेरे चैनल की तो टीआरपी बढ़ेगी और तेरा तो पैकेज बढ़ जाएगा और उस विचारधारा या पार्टी के वोट भी बढ़ जाएंगे, जो सत्ता के लिए समस्त सिद्धांत तिरोहित करके इतना आगे बढ़ चली है, जिस समय गांव में जवान सैनिकों के ताबूत आएंगे. लेकिन यह भी तो सोच कि इस धरती की ज़ीस्त कितना तिलमिलाएगी जब वह देखेगी कि इस जवान को भी उसके मां या बाप ने फ़ाकाकशी करके पाला था और किसी देशप्रेम के कारण नहीं, सिर्फ़ नौकरी की बेबसी में फौज में भेजा था. यह जो युवा हर रोज़ अपने सीने पर बम झेलते हैं, उसकी लपट न तो चैनल वाले के यहां आती है और न किसी पार्टी वाले के यहां. क्यों कोई राहुल गांधी प्रधानमंत्री ही बनना चाहता है? क्यों कोई रामदेव जो योग कुशल है, जो स्वस्थ है, जो हर तरह की आसन क्रियाएं जानता है, वह 10, 577 करोड़ की कंपनी खड़ी करने की राह ही पकड़ता है, सैनिक बनकर सिर कटाने की नहीं सोचता? क्यों? ऋषिवर? क्यों? योगिराज, तुम पकड़ो बंदूक और लगो न सरहद पर. सारा पतंजलि परिवार, समस्त शंकराचार्य और उनके अनुयायी, समस्त कारसेवक, समस्त सत्तासेवी देशभक्त, समस्त गोरक्षक, समस्त तिरंगाधारी, समस्त लालझंडे वाले और समस्त-समस्त युद्ध भड़काऊ, सारा आर्ट ऑव लिविंग और सारा राष्ट्रप्रेमी कुनबा क्यों नहीं सेना में जाता? अरे सेना में मत जाओ. सरहद के गांवों में जाकर उन लोगों की मुश्किलें ही हल कर दो, जो 1947 से बदतर जीवन जी रहे हैं और जिनके पास न पानी का नल है, न स्कूल है, न अस्पताल है, न जीवन जीने का कोई बड़ा मकसद है. अरे, किसान खेत भी अपना जलाए और बेटा भी अपना होम करे. टैंक आगे बढ़ें तो वे दस जनपथ या सात रेसकोर्स रोड की तरफ़ तो झांकें ही नहीं, लेकिन पूरी भारत माता की कोख को बांझ कर दें.
 

हम ने भी जब अपने टैंक आगे बढ़ाए तो हमने क्या किया? हमने भी तो इस्लामाबाद के कन्स्टीट्यूशन ऐवेन्यू स्थित पीएम हाउस या ऐवाने सदर को भूल गए और आम पाकिस्तानियों को रौंद डाला. उन बेचारों का क्या कुसूर था? कुसूरवार भुट्‌टो था, भुट्‌टो को क्या दंड मिला? क्या बाल भी बांका हुआ? उसे फांसी दी तो जिया उल हक़ ने दी. और चीन, उसका तो कोई टीवी चैनल वाला या राजनेता या देशभक्त नाम ही नहीं लेता कि चलो, पेइचिंग के कब्जेवाली जमीन छुड़ाओ. क्या हुआ संघ के उस प्रस्ताव का, जिसमें कस्में खाई गई थीं कि संसद में तब तक नहीं जाएंगे जब तक दुश्मन चीन से अपनी मातृभूमि का एक-एक कण प्राप्त न कर लेंगे? पुरानी बात भूल गए, चीन के बादशाह आए तो लालकालीन बिछाना याद रहा, जो हम और किसी के आगे तो कभी नहीं बिछाते. हमारे राजनेता आज फ़तह का जश्न तो मनाना जानते हैं, लेकिन किसी सैनिक के सिर कटने पर उनके घरों में कभी सोग होता हो, ऐसा मैंने देखा नहीं है. एक दिन हमारे जवानों के सिर कटते हैं और अगले दिन उन जवानों का सबसे शीर्ष मुखिया किसी देशभक्त ऋषि सम्राट् के यहां राष्ट्र ऋषि की उपाधि पाता देखा जाता है. नेहरू से मोदी तक कोई भी हों और किसी भी पार्टी के हों, सबके सब उस समय प्रसन्न चेहरों के साथ राजसत्ता के वैभव को जी रहे होते हैं जब धरती माता या भारत माता की जिंदगी मय्यतों पर रोती है. लोकतंत्र के शरीफ़जादे नेता न जंग टालने की कोशिशें करते हैं और न ही अपने आंगने के महकते फूलों की रक्षा करना जानते हैं. इनकी एक सीट बच सके या ये एक सीट जीत सकें तो ये किसी गुंडे को भी पार्टी में देशभक्त बताकर ला सकते हैं और इनकी अपनी मां की हत्या हो जाए तो ये पांच हजार लोगों का खून बहाने और अपने ही देश के भाइयों को जीवित जलाने जैसा हिंसक, अमानवीय और निंदनीय कर्म करने में संकोच नहीं करते. इनके चूल्हे पर वोटों की आंच जलती रहे तो ये राम की मर्यादा को भूल सकते हैं और इनके नुकसान हो तो ये किसी भी स्तर तक जा सकते हैं.
 

हम सभी दलों के सभी तरह के शासकों को देख चुके हैं 1947 से आज तक. ऐसी कोई विचारधारा नहीं, जिसे आजमाया न हो. नतीजा यही है कि लोकतंत्र की सभी सत्ताएं अपने ही लोगों के दुख-दर्द दूर करने की कोशिश नहीं करतीं, वे सिर्फ अपने आंगन के महकते फूलों से अपनी पिपासा शांत करने के लिए रक्त मांगती रहती हैं. सत्तालिप्सा में डूबे हमारे शासक उस देवी को तो पूजते हैं, जो अपनी गर्दन में खप्पर टांगती है और शत्रुओं का मर्दन करती है, लेकिन उसका यह आचरण ये लोग नहीं अपनाते कि मैं ही युद्ध भूमि में रहूं और मैं ही खप्पर पहनूं. यह काम किसी और का नहीं है. रक्तपिपासु तो खप्परवाली देवी भी है, लेकिन वह संदेश देती है कि शत्रु के रक्तपिपासु बनो. शत्रु कौन? यह भी पहचानने की जरूरत है. यह भी आत्मचिंतन का विषय है.
क्या ये शत्रु अशिक्षा, निर्धनता, दु:ख, आंसू, पीड़ा, घृणा, वैमनस्य, चोरी, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, बीमारियां, धरती पर बढ़ते बोझ और न जाने क्या-क्या चीज़ें नहीं हो सकतीं? हो सकती हैं, लेकिन उससे वोट नहीं मिलते. वोट रक्तस्नान करने से नहीं, रक्तस्नान कराने से मिलते हैं. खुद को रक्षित करके. खुद को बचाकर. इनको खप्परवाली देवी का यह सिद्धांत पसंद नहीं कि सबसे आगे मैं. देशभक्ति में भी और सिर कटाने के पवित्र काम में भी. अगर ऐसे हैं तो यह राजशाही है, यह भक्ति है और यह शक्ति है, लेकिन इनका सिद्धांत है तू सिर कटा और मैं महल में रहकर अपनी जान बचाऊं और सबसे बड़ा देशभक्त कहलाऊं. यही है लोकतंत्र! महान् लोकतंत्र!! 

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