Sunday ,19th May 2024

ये पानी पीते हैं, लेकिन गड्ठे का ,मानने पर मजबूर होंगे, मानेंगे, लेकिन नाक कटा कर

मानने पर मजबूर होंगे, मानेंगे, लेकिन नाक कटा कर. यह पहले भी कर सकते थे. पहले ही कर देना चाहिए था. अब जब चारों तरफ छीछालेदर हो गई और सुप्रीम कोर्ट का भी डंडा सिर के करीब आ गया, तो वो भी करना पड़ा जो दो-तीन वर्षों से जानबूझ कर नहीं कर रहे थे. विपक्ष ने भी इतना मजबूर कर दिया था कि कोई चारा नहीं बचा था. मुंह छिपाने के लिए यह करना ही था. इसीलिए यह आशंका और प्रबल हो जाती है कि उत्तर प्रदेश का इंतजार था. वह हो गया. बसपा प्रमुख मायावती ने आरोप लगाया था कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव ईवीएम के जरिये भाजपा ने जीता. कांग्रेस, सपा और आप समेत कई प्रमुख विपक्षी पार्टियों ने सरकार पर वीवीपीएटी मशीनों के लिए धन न देने का आरोप लगाया. चुनाव आयोग ने करीब एक दर्जन बार केंद्र सरकार से धन जारी करने की मांग की, लेकिन कुछ नहीं हुआ. अभी कुछ दिनों पहले आयोग ने विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद को पत्र लिखा था कि जब धन ही नहीं मिल रहा है, तो सुप्रीम कोर्ट को क्या जवाब देंगे.
कैबिनेट का फैसला है, तो उम्मीद की जा सकती है कि सरकार चुनाव आयोग को धन जारी कर देगी. ऐसा होने के बाद यह आशा भी की जा सकती है कि तय समय सीमा के भीतर वीवीपीएटी मशीनें आ जाएंगी और आगामी लोकसभा चुनाव में उन्हीं का उपयोग किया जाएगा. तब यह डर कम हो जाएगा कि ईवीएम के माध्यम से भाजपा चुनाव जीत लेगी.  इस फैसले के जरिये सरकार ने विपक्ष के उस मजबूत हमले को भी कुंद करने की कोशिश की है जिसने भाजपा और केंद्र सरकार दोनों की काफी फजीहत कर रखी थी. सत्ता पक्ष ने ईवीएम मशीनों को भगवान की तरह का बनाकर उसका चाहे जितना गुणगान किया हो और चुनाव आयोग के बहाने विपक्ष को आवाज न उठाने देने की असफल कोशिश की हो, यह मुद्दा तो बन ही चुका था. 
लोगों में यह चर्चा आम हो चुकी थी कि जरूर उत्तर प्रदेश में कोई खेल हुआ होगा. मध्यप्रदेश में ईवीएम के प्रजेंटेंशन में जिस तरह कोई भी बटन दबाने पर एक ही चुनाव चिन्ह की पर्ची निकल रही थी, उसने तो विपक्ष के आरोपों को एक तरह से पुख्ता ही कर दिया था. इसके बाद भाजपा और केंद्र सरकार को जवाब देने में काफी मुश्किलें आ रही थीं.   सरकार पर सुप्रीम कोर्ट का भी एक दबाव था जिसे वह लंबे समय तक नहीं टाल सकती थी. सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से पूछा था कि वीवीपीएटी के उपयोग के समय के बारे में सूचित करे. चुनाव आयोग शीर्ष अदालत को तभी बता सकता था, जब उसे पता हो कि तय समय सीमा के भीतर वह ऐसी मशीनें खरीद लेगा. मशीनें तभी खरीदी जा सकती थीं, जब आयोग को केंद्र से धन मिलता. केंद्र सरकार बार-बार मांगने के बावजूद चुनाव आयोग को धन नहीं उपलब्ध करा रहा था.
विपक्षी दलों ने सत्र के दौरान संसद में बहुत मजबूती से इस मुद्दे को न केवल उठाया था बल्कि एक तरह से यह साबित कर दिया था कि केंद्र सरकार जानबूझकर चुनाव आयोग को धन नहीं उपलब्ध करा रही है. इतना ही नहीं, बैलट पेपर से चुनाव कराने की मांग भी जोर पकड़ने लगी थी. एक दर्जन से ज्यादा विपक्षी दलों ने पारदर्शिता का हवाला देते हुए मांग की थी कि अब बैलट पेपर से चुनाव कराए जाने चाहिए क्योंकि इन ईवीएम मशीनों से निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं हैं. इसके बाद से सरकार खुद को घिरी महसूस कर रही थी. उसके सामने इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था कि धन जारी कर दिया जाए.  अगर अभी यह फैसला नहीं किया जाता, तो चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट को कोई विश्वसनीय जवाब नहीं दे पाता. तब यह खतरा भी था कि सुप्रीम कोर्ट इसे किस रूप में लेता. इसके अलावा, देर से फैसला लिए जाने पर मशीनों की समय पर खरीद भी असंभव जैसी हो जाती. कम से कम इनका उपयोग आगामी 2019 के आम चुनाव में नहीं किया जा सकता था.  चुनाव आयोग ने सरकार को पहले ही यह सूचित कर रखा था कि यदि वीवीपीएटी के लिए फरवरी 2017 तक आर्डर नहीं दिया गया, तो सितंबर 2018 तक यह मशीनें समय पर उपलब्ध नहीं हो सकेंगी. ऐसे में आगामी लोकसभा चुनाव में इनका उपयोग भी नहीं किया जा सकेगा. इस ताजा उठे विवाद के बाद सरकार के भी इस आरोप के साथ चुनाव में जाना काफी मुश्किल लग रहा होगा. इसलिए भी कि ईवीएम से संबंधित मामले सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुके हैं. यदि 2019 के चुनाव में वीवीपीएटी मशीनें नहीं अपनाई गईं, तो एक तरह से साफ हो जाएगा कि सरकार की ओर से ऐसा जानबूझकर किया गया है.

कैबिनेट के इस ताजा फैसले से यह बात भी साफ हुई कि कोई भी सरकार मनमाने फैसले नहीं कर सकती. जनता की आवाज को दबाया नहीं जा सकता. विपक्ष की अनदेखी नहीं की जा सकती. यह हमारे लोकतंत्र की मजबूती का भी एक बड़ा उदाहरण है. अनैतिक होकर कोई एक चुनाव जीता जा सकता है, लेकिन इसे परिपाटी नहीं बनाया जा सकता. ऐसे किसी भी दुस्साहस का बड़ा खामियाजा भुगतने को भी तैयार रहना होगा. हमारा संविधान और हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में एकाधिकार की गुंजाइश बहुत सीमित है. एक सीमा के बाद यह संभव नहीं है. कोई कितना  भी शक्तिशाली क्यों न हो, उसे जनदबाव के सामने देर-सबेर ही सही, झुकना पड़ेगा.
वैसे भी भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार पर यूटर्न के आरोप ऐसे ही नहीं लगते रहे हैं. जिस तरह भाजपा के नेता और सरकार के नुमाइंदे ईवीएम मशीन का बखान कर रहे थे और चुनाव आयोग पर किसी तरह की बात करने को अपराध की तरह पेश करने की कोशिश कर रहे थे, उससे एक तरह से वे यही बताने की कोशिश कर रहे थे कि इस मशीन में कोई गड़बड़ नहीं है. वे यह भूल गए थे कि लोग भी खड़े हो सकते हैं. महाराष्ट्र में तो मतदाताओं तक ने सवाल उठाए और अपने वोट के बारे में जानकारी चाही.  हालांकि यह लैंड बिल की तरह का यू टर्न नहीं है. आधार, मनरेगा और राइट टू फूड से लेकर जीएसटी तक जैसा भी नहीं. वीवीपीएटी का मसला थोड़ा भिन्न किस्म का है. लेकिन जो काम आज सरकार ने किया, वह इससे पहले भी कर सकती थी. तब अपनी गलतियों को स्वीकार न करने और विपक्ष की आवाज दबाने की कोशिश करती रही. आखिर में मानना पड़ा और कैबिनेट को फैसला लेना पड़ा. अभी भी सरकार और भाजपा यह कह सकती है कि चुनाव आयोग को पहले धन न उपलब्ध कराया जाना सरकार की बड़ी गलती थी. आज भले गलती न स्वीकार करें, तब मन ही मन जरूर पछताएंगे जब परिणाम खिलाफ जाएंगे क्योंकि मतदाता किसी को माफ नहीं करता. सरकार के इस ताजा फैसले पर एक जीव को लेकर कही जाने वाली लोकोक्ति बहुत सटीक बैठती है. उस जीव के नाम के साथ कहा जाता है कि वह पानी पिएगा लेकिन गंहदोर कर.गंहदोरना इस अर्थ में गड्ठे का पानी स्थिर पर शांत और साफ रहता है. गंहदोरने पर सारी गंदगी पानी में मिल जाती है.

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