Sunday ,19th May 2024

बैलट पेपरों से जुड़ा है पर्यावरण का गंभीर मुद्दा

बैलट पेपरों से जुड़ा है पर्यावरण का गंभीर मुद्दा

देश में इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों पर बहस और विवाद कोई नयी बात नहीं. लेकिन बहस से पहले यह देखना भी जरूरी हो जाता है कि विकल्प के तौर पर बैलट पेपरों की ओर लौटना खजाने और पर्यावरण पर बोझ के लिहाज से कितना भारी पड़ेगा.

देश में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) पर विवाद तब से ही जारी है जब 1989-90 में परीक्षण के तौर पर पहली बार इनका इस्तेमाल हुआ था. दिलचस्प बात यह है कि चुनावों में जो राजनीतिक पार्टी हारती है, वही इन मशीनों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाती रही है. बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने वर्षों पहले लिखी अपनी एक पुस्तक में भी दावा किया था कि ईवीएम में हेराफेरी करना संभव है. अब एक बार फिर बैलट पेपर के जरिए चुनाव कराने की मांग उठ रही है. लेकिन ज्यादातर लोगों का कहना है कि ऐसा करना तकनीक से मुंह मोड़ कर अतीत में लौटने जैसा है. इसकी बजाए ईवीएम को और सुरक्षित बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए. बैलट पेपरों से पर्यावरण और खर्च का मुद्दा भी जुड़ा है.

देश में हाल में हुए विधानसभा चुनावों में खासकर उत्तर प्रदेश और पंजाब के नतीजों के बाद बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और आम आदमी पार्टी (आप) ने ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए हैं. बसपा प्रमुख मायावती ने इन मशीनों के जरिए हुई कथित धांधली के खिलाफ पूरे देश में आंदोलन का एलान किया है और कोर्ट में जाने की धमकी दी है. आप नेता अरविंद केजरीवाल ने भी यही आरोप लगाए हैं. इन दोनों के अलावा कई अन्य क्षेत्रीय दल भी ईवीएम की बजाए पारंपरिक बैलट पेपर के जरिये चुनाव कराने की मांग उठा रहे हैं. केजरीवाल ने तो अगले महीने होने वाले दिल्ली नगर निगम चुनावों में बैलट पेपर के इस्तेमाल के लिए मुख्य सचिव को बाकायदा पत्र तक लिखा है. मध्यप्रदेश में भी नगर निगम चुनाव बैलट पेपर के जरिये कराने की मांग तेज हो रही है.

यह सही है कि वर्ष 1989-90 में पहली बार ईवीएम के इस्तेमाल के बाद अक्सर इस पर सवाल उठते रहे हैं. अमेरिका की मिशिगन युनिवर्सिटी में कंप्यूटर साइंस के एक प्रोफेसर डॉक्टर एलेक्स हेल्डरमैन ने कई साल पहले कहा था कि भारतीय ईवीएम की माइक्रोचिप को आसानी से बदल कर उसमें गड़बड़ी की जा सकती है. इसी तरह बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने भी सात साल पहले अपनी एक किताब में दावा किया था कि मामूली हेरफेर के बाद ईवीएम से मनचाहा नतीजा हासिल किया जा सकता है.

ईवीएम का समर्थन व विरोध करने वालों की अपनी दलीलें हैं. समर्थकों का कहना है कि इससे जहां बैलट पेपरों की छपाई और ढुलाई का भारी खर्च बचता है वहीं वोटों की गिनती भी बहुत कम समय में पूरी हो जाती है. उससे मानव श्रम और इसके लिए होने वाले भुगतान में भी कमी आई है. इसके अलावा कागज के लिए पेड़ों की कटाई से पर्यावरण को भी अपूर्णनीय नुकसान पहुंचता है. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह कहते हैं, "हमें पीछे लौटने की बजाय ईवीएम को और सुरक्षित और फूलप्रूफ बनाने के उपायों पर बहस करनी चाहिए." वह कहते हैं कि पेपर बैलट से मतदान के दौरान भी तमाम राजनीतिक दल चुनावी धांधली के आरोप लगाते रहे हैं. बैलट पेपर के मुकाबले ईवीएम के जरिये धांधली मुश्किल है.

लेकिन विरोधियों की दलील है कि जब कई विकसित देश ईवीएम की जगह बैलट पेपर के इस्तेमाल को तरजीह दे रहे हैं तो आखिर भारत में ऐसा क्यों नहीं हो सकता. मायावती कहती हैं, "उत्तर प्रदेश में ज्यादातर मशीनों में इस तरह छेड़छाड़ की गई थी ताकि बटन कोई भी दबे, वोट बीजेपी के नाम ही दर्ज हो." केजरीवाल ने पंजाब को लेकर भी यही आरोप लगाया है. उनकी दलील है की अगर ईवीएम इतना ही सुरक्षित होता तो आखिर दुनिया के तमाम विकसित देशों में इसे क्यों नहीं अपनाया जा रहा है? उल्टे कई देश तो अब इसकी जगह पारंपरिक बैलट पेपर की ओर लौट रहे हैं.

 

ईवीएम और बैलट पेपर दोनों की अपनी खूबियां व खामियां हैं. वर्ष 1989-90 में जहां एक ईवीएम की कीमत साढ़े पांच हजार रुपए थी वहीं अब यह लगभग 42 हजार रुपए है. लेकिन इसकी खासियत है कि कम से कम 15 वर्षों तक इनका इस्तेमाल किया जा सकता है. यानी रख रखाव के मामूली खर्च के अलावा बार बार इसे खरीदना नहीं होगा. इसके उलट हर चुनाव में नए सिरे से बैलट पेपर छापना होगा. ईवीएम से मतदान की स्थिति में नतीजे बहुत कम समय में मिल जाते हैं. इससे श्रम और खर्च दोनों बचता है. दूसरी ओर, बैलट पेपर के जरिए मतदान में उनकी छपाई, ढुलाई और मजदूरी पर भारी खर्च आएगा. उससे मतदान की स्थिति में वोटों की गिनती में लंबा समय लगेगा और खर्च भी बढ़ेगा.

वर्ष 2009 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला ने ईवीएम के इस्तेमाल को सही ठहराते हुए कहा था कि आम चुनावों में बैलट पेपर के लिए साढ़े सात हजार टन से ज्यादा कागज की जरूरत होती है. इसके लिए 2.82 लाख पेड़ों को काटना पड़ता है. बीते आठ वर्षों में वोटरों की तादाद बढ़ने के साथ यह आंकड़ा बढ़ कर 10 हजार टन हो गया है. इसके लिए हर चुनाव में लगभग साढ़े तीन लाख पेड़ों की कटाई करनी होगी. इसमें खर्च तो आएगा ही, पर्य़ावरण को भी भारी नुकसान होगा. तुर्रा यह कि हर पांच साल बाद यह प्रक्रिया दोहरानी होगी. विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों को जोड़ लें तो पेड़ों की कटाई और खर्च का यह आंकड़ा भयावह हो जाएगा.

पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि मौजूदा दौर में जब तमाम देश पर्यावरण संरक्षण पर खास ध्यान दे रहे हैं, बैलट पेपर की ओर लौटना एक आत्मघाती कदम साबित होगा.

पर्यावरण विशेषज्ञ प्रोफेसर किंग्शुक दास कहते हैं, "अब पूरी दुनिया पेपरलेस हो रही है. ऐसे में महज चुनावों के लिए इतने बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई कोई बुद्धिमानी नहीं होगी. अगर पेड़ों को बचाने के लिए विदेशों से कागज का आयात किया जाए तो चुनावों पर होने वाला खर्च कई गुना बढ़ जाएगा." एक अन्य पर्यावरण विज्ञानी डॉक्टर सुगत हाजरा कहते हैं, "देश के कई इलाके पहले से ही पर्यावरण असंतुलन के गंभीर खतरों से जूझ रहे हैं. इनमें जैविक विवधता के लिए मशहूर सुंदरबन भी शामिल है. समुद्र का जलस्तर बढ़ने की वजह से वहां कई द्वीप पानी में डूब गए हैं." वह कहते हैं कि मौजूदा हालात में बैलट पेपरों की ओर लौटने का मतलब इस खतरे को एक झटके में कई गुना बढ़ाना होगा.

विशेषज्ञों का कहना है कि तकनीक के मौजूद दौर में बैलट पेपरों के पुराने युग में लौटने की बजाय चुनाव आयोग को तमाम राजनीतिक दलों के साथ सलाह-मशविरे के बाद ईवीएम को और सुरक्षित बनाने के उपायों पर विचार करना होगा. इसके लिए विभिन्न देशों में अपनाई जाने वाली तकनीक व प्रक्रिया का भी अध्ययन किया जा सकता है. प्रोफेसर हाजरा कहते हैं, "बैलट पेपरों की छपाई, ढुलाई और मजदूरी का खर्च तो फिर भी मैनेज किया जा सकता है. लेकिन पेड़ों की कटाई से पर्यावरण को जो नुकसान होगा उसकी कभी भरपाई नहीं की जा सकेगी."

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि भारत में मतदान के दौरान चाहे जिस तरीके का भी इस्तेमाल किया जाए चुनावों में धांधाली के आरोप लगातार लगते रहे हैं. ऐसे में पर्यावरण और देशहित को तरजीह देते हुए सभी दलों को साथ लेकर चलना ही बेहतर तरीका होगा. ईवीएम के समर्थकों और विरोधियों के रुख से साफ है कि भारत में ईवीएम बनाम बैलट पेपर का यह विवाद जल्दी थमने के आसार नहीं हैं. 2019 में एक बार फिर आम चुनाव होने हैं. तमाम विपक्षी दल उस समय तक शायद इस मुद्दे को गरमाये रखना चाहते हैं.

 

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