Sunday ,19th May 2024

प्रदेश के विकास में आदिवासियों के लिए मौत के सिवा कुछ नहीं

प्रदेश के विकास में आदिवासियों के लिए मौत के सिवा कुछ नहीं

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ये है आदिवासियों का मध्य प्रदेश जहा सिर्फ कागजी विकास है यहां विकास की अविरल धारा बहती है और आदिवासियों के लिए डिजिटलाइजेशन और हवाई यात्रा के सपने हैं.जननी एक्सप्रेस और १०८ सेवा के बाद भी  न जाने कितने ही दाना मांझी कभी भी अपने मां-बेटे को कंधे पर लादे मीलों चलते मिल जाएंगे. मरीज को भी खाट पर लाद ले जाने और फिर उसकी मौत पर शव भी उसी तरह उसी खाट पर ले जाने की मजबूरी. एक पिता को अपने मृत बच्चे का शव झोले में लेकर कई मील पैदल चलना पड़ता है. दिल दहलाने वाली बात यह है कि आदिवासी इलाको  में कई बच्चों की मौत हो जाती है, लेकिन कोई हलचल नहीं होती, किसी भी शहर में नहीं. न सरकारी स्तर पर न गैरसरकारी स्तर पर. बस कभी कभी कुछ उठा पटक करके एक कांग्रेस की प्रतिक्रिया और दूसरी वेबसाइट पर स्टोरी के अतिरिक्त कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि कुछ हुआ है. ये वो आदिवासी है जिन्हें संरक्षित श्रेणी में रखा गया है. कहने की जरूरत नहीं कि जब संरक्षित श्रेणी वालों के साथ यह हाल हो रहा है, तो अन्य आदिवासियों के साथ क्या हो रहा होगा? आंकड़े बताते हैं कि सरकारी अस्पतालों में शिशुओं की मौत का आंकड़ा 70 फीसदी से अधिक है. इसमें भी सबसे अधिक मौतें जन्म के सात दिनों के भीतर हुई हैं. जाहिर है कोई जानलेवा बीमारी नहीं फैली है तो ये मौतें सामान्य कारणों से हुई होंगी. सब कुछ शांत, एकदम रोज की तरह हर रोज, किसी के चेहरे पर कोई शिकन नहीं, कोई गिला शिकवा नहीं, किसी तरह का दुख या गुस्सा नहीं. अब से एक साल पहले एक तीन साल के बच्चे आयलान कुर्दी की एक तस्वीर ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया था. समुद्र तट पर औंधे मुह पड़ा या बच्चा सीरियाई शरणार्थियों का प्रतीक बन गया था. वही बस्तर में नौ महीने में पांच सौ बच्चों की मौत से आयलान कुर्दी की मौत को जोड़ने का कोई तुक किसी को नहीं समझ में आ सकता है, लेकिन सत्ता की अमानवीयता को तो समझा जा सकता है, जिसमें बच्चों की मौत पर भी अब सिहरन तक नहीं होती. दिखावे के लिए ही सही, अब से कुछ साल पहले अमेरिका में एक स्कूल में कुछ बच्चों को एक सिरफिरे ने अंधाधुथ फायरिंग कर मौत की नींद सुला दिया था. तब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सार्वजनिक रूप से न केवल इस घटना पर अपनी बात रखी थी बल्कि उनकी आंखों में आंसू तक आ गए थे.  इससे कतई इस निष्कर्ष पर पहुंचने की जरूरत नहीं कि ओबामा कोई बहुत बड़े संवेदनशील राष्ट्रपति थे. उन्होंने भी ईराक से लेकर कई जगहों पर मानवता के खिलाफ काम किए. पर यह भी किया. हमारे देश में तो कोई नोटिस ही नहीं लेता. झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में लोग बेमौत मरते रहते हैं या मारे जाते रहते हैं, लेकिन आह तक नहीं निकलती. क्या इतनी उम्मीद करने की गुंजाइश भी नहीं बचाई जा सकती कि कम से मुख्यमंत्री ही ऐसी हृदय विदारक मौतों पर कम से कम दुख ही व्यक्त करे . प्रधानमंत्री तो उनकी मौत पर भी दुखी नहीं हुए जो बेचारे बिना किसी गुनाह नोटबंदी के दौरान सदमे में, लाइनों में अथवा बेटी का विवाह न कर पाने के गम में अपनी जान गंवा बैठे. वह तो ऐसे लोगों का ताली बजाकर मजाक तक उड़ाते रहे कि घर में बेटी की शादी है और पैसा नहीं है.  इन आदिवासियों के लिए शायद अब ऐसे किसी के दुखी होने अथवा आंसू बहाने की अपेक्षा भी नहीं होगी क्योंकि उन्हें यह पक्का विश्वास हो चला होगा कि इन सत्ताधारियों के लिए वे वोट और दुनिया में प्रदर्शित करने के अलावा कुछ भी नहीं हैं. तभी तो उनके लिए सिर्फ सपने बेचे जाते हैं. हवाई किले प्रस्तुत किए जाते हैं. डिजिटल और हवाई यात्रा की सुविधा की घोषणाएं की जाती हैं. लेकिन उनकी झोपड़ियां तक जला दी जाती हैं और सड़कें तथा सार्वजनिक वाहन तक उपलब्ध नहीं कराया जाता. नदियों-नालों पर पुल तक नहीं होते कि कम से कम गर्भवती महिलाओं या अन्य गंभीर मरीजों को आसानी से अस्पताल ले जाया जा सके. अस्पताल और इलाज की कोई व्यवस्था नहीं. घोषणाएं जरूर बड़ी-बड़ी होती हैं, लेकिन वे वहां पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं. नसबंदी के नाम पर महिलाओं को मार दिया जाता है. कोई सुनने वाला नहीं होता. अमृत दूध से बच्चे जान गंवा देते हैं, मंत्री की ओर से कह दिया जाता है दूध ठीक है. तो क्या वे बच्चे ठीक नहीं थे जो दूध के शिकार हो गए? प्रसूता महिलाओं के लिए जननी एक्सप्रेस जैसी नामी योजना होगी, लेकिन गर्भवती महिलाओं को नाले और पहाड़ पैदल ही पार करना होगा.

 

बच्चों को स्कूल छोड़कर पलायन करना पड़ेगा क्योंकि उनके माता-पिता को काम मनरेगा के बावजूद नहीं मिलेगा. मजदूरों को काम न मिलने के कारण पलायन करना पड़ता है. बच्चों को झोपड़ियों में या पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ना पड़ेगा. बीमार होंगे तो अस्पताल और इलाज नहीं मिलेगा. शौचालय के नाम पर फर्जीवाड़ा कर प्रधानमंत्री से पुरस्कार भी दिलवा दिया जाएगा, गरीबों को प्रताड़ित भी किया जाएगा, लेकिन छात्राओं के लिए स्कूलों में शौचालय नहीं होंगे. घोषणा के बावजूद स्कूली बच्चों को न जूते मिलेंगे न साइकिल दी जाएगी. बच्चों को हिंदी लिखने न आने और जोड़-घटाना न आने पर भी शर्म नहीं आएगी. बुजुर्ग को ट्रायसिकल के लिए 38 किलोमीटर का रास्ता 30 किलोमीटर तक घिसटकर तय करने को मजबूर होना पड़ेगा .  बुजुर्गों-विधवाओं को पेंशन नहीं मिल पाती. किसानों को प्याज  खेतों में और सड़कों पर फेंकना पड़ता है. सरकारी घोषणा के बावजूद किसानों को न बोनस मिलेगा न फसल की कीमत. आदिवासी लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार होता है, हत्या कर दी जाती है. पत्रकारों, शिक्षकों, अधिवक्ताओं तक को फर्जी मुकदमों में फंसाया जाता है. नेताओं के पुतले जलाए जाते हैं.

राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं को तरह-तरह से उत्पीड़ित किया जाएगा. अदालतों-आयोगों के निर्देशों की अनदेखी होगी. बड़े-बड़े भ्रष्टाचार होते रहेंगे, किसी के खिलाफ कार्रवाई नहीं होगी.  एक ऐसे राज्य में जहां की सरकार सिर्फ विकास जानती है. जिसके मुख्यमंत्री विकास गाथा कहते थकते नहीं. जिसकी प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक प्रशंसा के पुल बांधते रहते हैं और जिसकी पार्टी के अध्यक्ष सभी को उनका अनुसरण करने का सुझाव देते हैं. इन सबको अगर आदिवासियो से कोई मतलब नहीं , तो कहना पड़ेगा कि मानवीयता की हत्या कर किए जा रहे विकास में मनुष्य विशेषकर आदिवासियों के लिए शायद कोई जगह नहीं है.

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